Friday, March 25, 2016

3>गोरखनाथ ने किया तंत्र विद्या का दुरूपयोग

3>|| तंत्र-मंत्र का रहस्य***( 1 to 7 )

1>गोरखनाथ ने किया तंत्र विद्या का दुरूपयोग
2>तंत्र-मंत्र का रहस्य
3>पंचतत्व : वायु को वश में करें – कैसे?
4>क्यों जागें ब्रह्म मुहूर्त बेला में?
5>ध्यान को असरदार बनाने के 3 नुस्खे
6>चंद्र-ग्रहण के समय क्यों नहीं करते हैं भोजन?
7>भूत-प्रेत बाधा के योग इस प्रकार हैं-
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1>गोरखनाथ ने किया तंत्र विद्या का दुरूपयोग 

आम तौर पर तंत्र-विद्या को आध्यात्मिक मार्ग से हमेशा दूर रखा गया है। गोरखनाथ की कहानी के माध्यम से सद्‌गुरु बता रहे हैं कि ऐसा क्यों किया गया…
सद्‌गुरु:
आम तौर पर तंत्र-विद्या को आध्यात्मिक मार्ग से हमेशा दूर रखा गया है। जब कभी आध्यात्मिक मार्ग पर चल रहे किसी साधक ने तंत्र-मंत्र की ओर जरा-सा भी रुझान दिखाया, उसके खिलाफ सख्त कदम उठाए गए ताकि वे दोबारा ऐसा न करें। इसकी एक बड़ी मिसाल हैं गोरखनाथ। गोरखनाथ असीम क्षमताओं वाले बहुत उग्र योगी थे। गुजरात में एक पर्वत चोटी का नाम उनके नाम पर रखा गया है, क्योंकि वे आम इंसानों के बीच एक ऊंचे पहाड़ जैसे थे। आज भी उनके अनुयायी- जिन्हें गोरखनाथी नाम से जाना जाता है, योगिक परंपरा के बहुत बड़े संप्रदायों में से एक है। वे लोग बहुत तीव्र और प्रखर होते हैं।


गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ

गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ थे। मत्स्येंद्रनाथ इतने ज्यादा योग्य थे कि लोग उनको शिव से कम नहीं मानते थे। उनको लोग इंसान नहीं मानते थे, क्योंकि उनमें इंसानों जैसी बात बहुत कम ही थी। उनकी लगभग हर बात जीवन के किसी दूसरे आयाम की ही थी। कहते हैं कि वे अपने नश्वर शरीर में 600 साल तक रहे। आम तौर पर वे समाज से दूर ही रहते थे। उनके कुछ थोड़े-से प्रचंड और तीव्र शिष्य ही उनसे संपर्क कर पाते थे। गोरखनाथ उन्हीं में से एक थे।

मत्स्येंद्रनाथ ने देखा कि गोरखनाथ संसार के लिए एक जबरदस्त संभावना हैं, लेकिन अपने गुरु के प्रति बहुत ज्यादा आसक्त हो रहे हैं। इसलिए उन्होंने उनको चौदह साल के लिए यह कर दूर भेज दिया कि ‘जाओ किसी दूसरे पर्वत पर जाकर वहीं अपनी साधना करो। चौदह साल के बाद वापस आओ’। गोरखनाथ चले गए और गहन साधना करने लगे – लेकिन साथ ही वे दिन गिन रहे थे कि दोबारा कब अपने गुरु के दर्शन कर पाएंगे। ठीक चौदह साल बाद वे वहां लौटे, जहां उन्हें अपने गुरु के होने की उम्मीद थी। वहां उन्होंने एक शिष्य को द्वार की रक्षा करते देखा।
तंत्र-मंत्र योग का सबसे निम्न रूप है, लेकिन लोग सबसे पहले यही करना चाहते हैं। वे कुछ ऐसा देखना या करना चाहते हैं, जो दूसरे नहीं कर सकते।गोरखनाथ ने उनसे कहा कि वे मत्स्येंद्रनाथ से मिलने आए हैं। शिष्य ने कहा, “नहीं, आप अंदर नहीं जा सकते।” गोरखनाथ तुरंत गुस्से से भड़कते हुए बोले, “आप मुझे कैसे रोक सकते हैं? मैं चौदह साल से उनसे मिलने का इंतजार कर रहा हूं। मुझे रोकने वाले आप कौन होते हैं?” शिष्य ने कहा, “मैं कौन हूं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आप अंदर नहीं जा सकते।”



गोरखनाथ ने उस व्यक्ति को दबोच कर नीचे पटक दिया और उस गुफा के अंदर चले गए, जिसमें गुरु के होने की उम्मीद थी। पर अंदर जाने पर उन्होंने देखा कि गुफा खाली है। वे रोते हुए बाहर आए और अपने गुरु के बारे में पूछा कि वे कहां हैं? शिष्य बोला, “मैं आपको नहीं बताने वाला। आप बहुत असभ्य हैं।” गोरखनाथ उसके सामने बहुत गिड़गिड़ाए, मगर कोई लाभ नहीं हुआ। तब अपनी तांत्रिक शक्तियों का इस्तेमाल कर गोरखनाथ ने दूसरे योगी के मन की बात पढ़ कर पता कर लिया कि उनके गुरु कहां हैं और सीधे वहीं चले गए।

वे जैसे ही वहां पहुंचे, मत्स्येंद्रनाथ ने जान लिया कि उन्होंने उनके बारे में किस तरह से मालूम किया था। मत्स्येंद्रनाथ उनसे बोले, “मेरी दी हुई तंत्र साधना का तुमने दुरुपयोग किया है। तुमने अपने दूसरे योगी भाई के मन के अंदर देखने के लिए इसका दुरुपयोग किया। तुम्हें उसके मन की बात पढ़ने की कोई जरूरत नहीं थी। तुमने मेरी दी हुई योग शक्ति का सबसे निचला रूप पाया है।”
गोरखनाथ साधना

तंत्र विद्या योग का सबसे निम्न रूप है, लेकिन लोग सबसे पहले यही करना चाहते हैं। वे कुछ ऐसा देखना या करना चाहते हैं, जो दूसरे नहीं कर सकते। योग के शब्दों में इसका मतलब है कि उन्होंने खुद को मूलाधार से व्यक्त किया। इसलिए मत्स्येंद्रनाथ ने गोरखनाथ से कहा, “जाओ, अपने मूलाधार को बंद कर के फिर से चौदह साल तक बैठो।” गोरखनाथ लौट गए और उस आसन में बैठ गए जो आज गोरखनाथ आसन के नाम से प्रसिद्ध है। मूलाधार को बंद किए हुए वे इस अत्यंत दुखदाई आसन में बैठे रहे, तकि दोबारा कभी वे इस सबसे निचले रास्ते से खुद को अभिव्यक्‍त न कर पाएं।

काफी साधना करने के बाद गोरखनाथ को परमानंद की अनुभूति हुई। ये परंपराएं साधना की तीव्रता पर जोर देती हैं। उन लोगों ने इंसान के मनोवैज्ञानिक पहलू की बिल्कुल चिंता नहीं की, क्योंकि उनका मानना था कि मनोवैज्ञानिक पहलू इंसान का बेहद सूक्ष्म और दुर्बल हिस्सा है। उनका पूरा काम एक अलग स्तर पर है। वे जीवन-ऊर्जा को पूरी तरह से अलग आयाम में ले जाते हैं। इन परंपराओं में इस बात की कभी परवाह नहीं की गई कि इंसान को खुशहाल और प्रेममय कैसे बनाया जाए।
गोरखनाथ – गहरी समाधि की स्थिति में

हालांकि गोरखनाथ बेहद प्रचंड किस्म के योगी थे, लेकिन मत्स्येंद्रनाथ ने हमेशा उनकी देखभाल ऐसे की, जैसे वह एक छोटे बच्चे हों। एक बार गोरखनाथ गंगा के किनारे ध्यान की ऐसी गहन अवस्था में बैठे कि उन्हें समय का कोई ध्यान ही नहीं रहा। कुछ समय के बाद गंगा के बहाव में बदलाव आ गया, जिससे रेत खिसक गई और गोरखनाथ के ऊपर जमा होने लगी। लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ। वे ध्यान में डूबे रहे। धीरे-धीरे उन पर इतनी रेत और मिट्टी जमा हो गई कि वे जमीन के भीतर दब गए। जमीन के नीचे वह अट्ठारह महीने से भी ज्यादा समय तक दबे रहे।

समय बीतता गया। एक दिन कुछ किसानों ने गंगा किनारे की इस उपजाऊ जमीन को जोतने का फैसला किया। जमीन जोतने के दौरान एक दिन उन्होंने देखा कि जमीन में से खून निकल रहा है।
तंत्र-मंत्र को इतना बुरा माना जाता है कि उसके पास फटकने से भी मना किया जाता है। यह हमेशा बुरा नहीं होता, लेकिन बदकिस्मती से इसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर इसी तरह से किया गया है।जब उन्होंने मिट्टी हटा कर देखा तो पता चला कि एक योगी वहां बिलकुल अचल-स्थिर बैठा है। जमीन जोतने के दौरान गलती से हल उनके सिर से टकरा गया था, जिसकी वजह से सिर से खून बहने लगा था। लेकिन गोरखनाथ को इसका जरा भी अहसास नहीं हुआ। वे बस ध्यान में बैठे रहे। गांव वालों ने उन्हें रेत से बाहर निकाला। जैसे ही यह बात फैली, हजारों लोग ध्यान में डूबे इस योगी को देखने के लिए वहां जमा हो गए। गोरखनाथ के चारों ओर लोगों का मेला लग गया, लेकिन ध्यान में डूबे गोरखनाथ इस सबसे बेखबर थे।

इस भीड़ में से एक शख्स ने गोरखनाथ को पहचान लिया। उसने मत्स्येंद्रनाथ के पास जाकर पूरी बात बता दी। मत्स्येंद्रनाथ बोले, ‘ओह, वह बेवकूफ है। उसके सिर पर हल का कुछ असर नहीं होगा। मुझे ही उसे जगाना होगा।’ यह कह कर मत्स्येंद्रनाथ ने चुटकी बजाई और उसी पल गोरखनाथ ने आंखें खोल दीं। उन्होंने आसपास देखा तो वहां लोगों की भीड़ इकट्ठी थी और उनके सिर में चोट से दर्द हो रहा था। वे गुस्से में उठ खड़े हुए और वहां से चल दिए।
गोरखनाथ : गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के प्रति गुरु भक्ति

एक बार की बात है, मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के साथ कहीं जा रहे थे। उन्होंने एक छोटी-सी नदी पार की। मत्स्येंद्रनाथ एक पेड़ के नीचे बैठ गए और बोले, ‘मेरे लिए पानी ले आओ।’ गोरखनाथ तो एक सिपाही की तरह थे। उनके गुरु ने पानी मांगा था और वह तुरंत इस काम को पूरा कर देना चाहते थे। पानी लाने के लिए वह नदी की ओर चल दिए। उन्होंने देखा कि उस छोटी-सी नदी से उसी समय कुछ बैलगाडिय़ां होकर गुजरी हैं, जिसकी वजह से उसका पानी गंदा हो चुका था। वह दौड़ते हुए अपने गुरु के पास आए और बोले, ‘गुरुजी, यहां का पानी गंदा है। यहां से थोड़ी ही दूरी पर एक और नदी है। मैं वहां जाकर आपके लिए पानी ले आता हूं।’

मत्स्येंद्रनाथ ने कहा, ‘नहीं, नहीं। मेरे लिए इसी नदी से पानी लेकर आओ।’ गोरखनाथ बोले, ‘लेकिन वहां का पानी गंदा है।’ मत्स्येंद्रनाथ ने कहा, ‘मुझे उसी नदी का और उसी स्थान का पानी चाहिए। मुझे बहुत प्यास लगी है।’ गोरखनाथ फिर से नदी की ओर दौड़े, लेकिन पानी अभी भी बहुत गंदा था। उन्हें समझ में नहीं आया कि क्या करें। वे लौट कर फिर गुरु के पास आए। मत्स्येंद्रनाथ ने फिर वही कहा, ‘मैं प्यासा हूं। मेरे लिए पानी लाओ।’ गोरखनाथ बुरी तरह उलझन में फंस गए। वह यहां से वहां यह सोचते हुए दौड़ते रहे कि आखिर क्या किया जाए। वे फिर से गुरु के पास आए और प्रार्थना की, ‘यहां का पानी गंदा है। मुझे थोड़ा वक्त दीजिए। मैं आपको दूसरी नदी से साफ पानी लाकर देता हूं।’ गुरु बोले, ‘नहीं, मुझे तो इसी नदी का पानी चाहिए।’

उलझन में डूबे गोरखनाथ वापस नदी पर गए। उन्होंने देखा कि अब नदी का पानी कुछ स्थिर हो गया है और पहले के मुकाबले थोड़ा साफ है। उन्होंने थोड़ा और इंतजार किया। कुछ देर में पानी पूरी तरह साफ हो गया। गोरखनाथ आनन्द विभोर होकर पानी लिए गुरु के पास पहुंचे और मत्स्येंद्रनाथ को पानी दिया। मत्स्येंद्रनाथ ने पानी एक तरफ रख दिया, क्योंकि वे वास्तव में प्यासे नहीं थे।

दरअसल, वह इस तरह गोरखनाथ को एक संदेश दे रहे थे। गोरखनाथ एक ऐसे इंसान थे जो गुरु की कही बात हर हाल में पूरी करते। अगर उनसे एक मंत्र का दस बार जाप करने को कहा जाता, तो वह उसका दस हजार बार जाप करते। वह हमेशा गुरु की आज्ञा पूरी करने को तैयार रहते। जो उनसे कहा जाता, उसे बड़ी श्रद्धा और लगन के साथ पूरा करते थे। यह उनका महान गुण था, लेकिन अब वक्त आ गया था कि वे दूसरे आयाम में भी आगे बढ़ें, इसलिए मत्स्येंद्रनाथ ने उन्हें समझाया- यहां-वहां भाग-दौड़ करके और मेहनत करके तुमने अच्छा काम किया है, लेकिन अब वक्त आ गया है, जब तुम्हें बस इंतजार करना है, और तुम्हारा मन बिलकुल शांत और साफ हो जाएगा।
गोरखनाथ आश्रम – नाथ परंपरा के योगियों के समाधि स्थल

गोरखनाथ को भारत में एक महान योगी का दर्जा प्राप्त है। महाराष्ट्र के दक्षिण में स्थित पश्चिम घाट में एक पूरी पर्वत श्रृंखला उनके नाम पर है, क्योंकि इंसानों के बीच वे एक पर्वत की तरह हैं। पूरे उपमहाद्वीप में उन्होंने असाधारण काम किया और आज भी उनके अनुयायियों को, जो बड़े प्रचंड और तीव्र लोग होते हैं, गोरखनाथी कहा जाता है। आज एक हजार साल बाद भी योगिक परंपराओं में गोरखनाथियों को सबसे बड़े संप्रदायों में से एक माना जाता है। आज गोरखनाथ आश्रम में सौ से ज्यादा समाधियां हैं, जो इस संप्रदाय से जुड़े उन लोगों की हैं जिन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। वैसे तो इस संप्रदाय के बहुत सारे योगियों को परम मुक्ति की प्राप्ति हुई, लेकिन जिन लोगों ने आश्रम में रह कर आत्मज्ञान हासिल किया, उनकी समाधियां यहां बनाई गईं। बहुत सारे लोग ऐसे भी थे, जिन्हें जंगलों और पर्वतों में आत्मज्ञान मिला। उन्हें किसी निशानी की जरूरत नहीं है।

तंत्र-मंत्र को इतना बुरा माना जाता है कि उसके पास फटकने से भी मना किया जाता है। यह हमेशा बुरा नहीं होता, लेकिन बदकिस्मती से इसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर इसी तरह से किया गया है। कोई भी विज्ञान या टेक्नालॉजी बुरी नहीं होती। लेकिन अगर हम टेक्नालाजी का इस्तेमाल लोगों की जान लेने और उनको यातना देने के लिए करते हैं, तो कुछ समय बाद लगेगा कि टेक्नालाजी बुरी चीज है। तंत्र-मंत्र के साथ यही हुआ है, क्योंकि बहुत ज्यादा लोगों ने अपने निजी फायदे के लिए इसका गलत इस्तेमाल किया। इसलिए आम तौर पर तंत्र-मंत्र को आध्यात्मिक मार्ग से दूर ही रखा जाता है।
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2>तंत्र-मंत्र का रहस्य

अंग्रेजी भाषा में ऑकल्ट यानी तंत्र-मंत्र की परिभाषा “आध्यात्मिक रहस्य” से ले कर “गुप्तविद्या” तक गई है। इस लेखमाला की पहली कड़ी में सद्‌गुरु गलतफहमियों में घिरे इस शब्द पर से रहस्य का परदा उठा रहे हैं।

सद्‌गुरु:

अंग्रेजी शब्द ‘ऑकल्ट’ का कोई बिलकुल स्पष्ट और निश्चित अर्थ नहीं है। दरअसल ऑकल्ट का मतलब सिर्फ एक खास काबिलियत है, लेकिन चूंकि कुछ लोगों ने इस काबिलियत का गैरजिम्मेदारी से गलत इस्तेमाल किया, इसलिए ‘ऑकल्ट’ शब्द के गलत अर्थ निकाल लिए गए हैं।

‘ऑकल्ट’ यानी तंत्र-मंत्र महज एक टेक्नालाजी है। आज आप भारत में अपना मोबाइल फोन उठा कर जब चाहें युनाइटेड स्टेट्स में किसी से बात कर सकते सकते हैं। तंत्र-मंत्र ऐसा ही है – बस आप सेलफोन के बिना ही युनाइटेड स्टेट्स में किसी से बात कर सकते हैं। यह थोड़ी ज्यादा उन्नत टेक्नालाजी है। वक्त के साथ जब आधुनिक टेक्नालाजी का और विकास होगा, तब उसके साथ भी ऐसा ही होगा। अभी ही मेरे पास एक ब्लू टूथ मेकेनिज्म है, जिसमें किसी का नाम बोलने भर से मेरा फोन उसका नंबर डायल करने लगता है। एक दिन ऐसा आएगा, जब इसकी भी जरूरत नहीं पड़ेगी। बस, शरीर में एक छोटा-सा इम्प्लांट लगाने से काम चल जाएगा।
तंत्र-मंत्र का सत्य

तंत्र-मंत्र तब होगा जब आप ब्लू टूथ के बिना भी बात कर सकें। यह एक अलग स्तर की टेक्नालाजी है, पर है भौतिक ही। यह सब करने के लिए आप अपने शरीर, मन और ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं। टेक्नालाजी चाहे जो हो, आप अपने शरीर, मन और ऊर्जा का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। आम तौर पर आप अपनी सेवा के लिए दूसरे पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन एक सेलफोन या किसी भी टेक्नालाजी के उत्पादन के लिए जिन बुनियादी पदार्थों का उपयोग होता है, वे शरीर, मन और ऊर्जा ही होते हैं।
आधुनिक विज्ञान और तंत्र-मंत्र कहीं-न-कहीं जरूर मिलेंगे

शुरू-शुरू में फोन तैयार करने के लिए आपको तरह-तरह के सामान की जरूरत होती थी। अब हम लगातार इस सामान की मात्रा घटाने की कोशिश कर रहे हैं। एक दिन ऐसा आएगा, जब हमें किसी भी सामान की जरूरत नहीं पड़ेगी – यह होगा तंत्र-मंत्र। आधुनिक विज्ञान और तंत्र-मंत्र कहीं-न-कहीं जरूर मिलेंगे अगर कौन क्या है इसकी समझ में थोड़े फेरबदल हो जाए। भौतिक का अनेक प्रकार से उपयोग किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर अगर आप इनफार्मेशन टेक्नालाजी को लें, तो जो चीज पत्थर के टैबलेट से शुरू हुई, वह अब एक बहुत ही छोटे-से चिप तक पहुंच चुकी है। जिस के लिए पूरे पहाड़ को तराशने की जरूरत होती, आज एक बहुत ही छोटा-सा चिप उसके लिए काफी है। भौतिक वस्तु अब सूक्ष्म हो चली है। जब हम भौतिक के सूक्ष्मतम आयाम का उपयोग करते हैं, तो उसको तंत्र-मंत्र कहते हैं।
तंत्र-मंत्र और अध्यात्म

दुनिया के कई हिस्सों में तंत्र-मंत्र को आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है, जो कि ठीक नहीं है। जब हम आध्यात्मिक कहते हैं, तो भौतिकता के पार जाने की बात करते हैं, आपके भीतर एक ऐसी अनुभूति लाने के लिए जो भौतिक की नहीं है। पर भौतिक के सूक्ष्मतम आयामों का उपयोग करने के बावजूद तंत्र-मंत्र है तो भौतिक ही।

जैसे-जैसे आधुनिक टेक्नालाजी सूक्ष्म और सूक्ष्म होती जाएगी, तंत्र-मंत्र की जरूरत कम होती जाएगी। मान लीजिए हजार साल पहले मैं कोयंबटूर में था और आप दिल्ली में, और मैं आपको एक निर्देश देना चाहता था। आपका इतनी दूर से यात्रा करके चलते हुए मेरे पास कोयंबटूर आना या मेरा चलते हुए आपके पास दिल्ली आना, अव्यावहारिक होता, इसलिए मैं समय लगा कर तंत्र-मंत्र में महारत हासिल कर लेता, ताकि मैं अपना निर्देश आप तक पहुंचा सकूं। लेकिन अब मुझे ऐसा करने की जरूरत नहीं, क्योंकि मेरे पास एक सेलफोन है। मैं अभी भी तंत्र-मंत्र कर सकता हूं, लेकिन आपको इसे ग्रहण करने लायक बनाना – ताकि आप यह निर्देश बिलकुल साफ ग्रहण कर सकें और उस पर संदेह न करें – बेकार में बहुत सारा वक्त ले लेता। यह सब करने की बजाय मैं आपको सीधे फोन कर सकता हूं। तो तंत्र-मंत्र दिन-ब-दिन ज्यादा और ज्यादा बेमानी होता जा रहा है, क्योंकि आधुनिक टेक्नालाजी बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही है।
मगर तंत्र-मंत्र बहुत ऊंची श्रेणी का भी होता है। शिव एक तांत्रिक हैं।
तंत्र-मंत्र – न अच्छा न बुरा

इसलिए जब आप तंत्र-मंत्र कहते हैं, तो चूंकि लोगों ने ऐसे तांत्रिकों के बारे में सुन रखा है, जिन्होंने लोगों की जिंदगी बरबाद करने की कोशिश की या जिन्होंने लोगों को बीमार बनाया और मार डाला, इसलिए वे समझते हैं कि तंत्र-मंत्र हमेशा बुरा होता है। सामाजिक दृष्टि से संभव है आपने ऐसे ही लोगों को देखा हो। मगर तंत्र-मंत्र बहुत ऊंची श्रेणी का भी होता है। शिव एक तांत्रिक हैं। सारा तंत्र-मंत्र अनिवार्य रूप से बुरा नहीं होता। तंत्र-मंत्र एक अच्छी और लाभकारी शक्ति हो सकता है। यह अच्छा है या बुरा, यह इस बात के भरोसे होता है कि इसका उपयोग कौन कर रहा है और किस मकसद से।
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3>पंचतत्व : वायु को वश में करें – कैसे?


हमारी पंचतत्वों की ब्लॉग श्रृंखला में आइये आज पढ़ते हैं वायु के बारे में।

पंचतत्वों में वायु का स्थान महत्वपूर्ण है, क्योंकि हर क्षण हम सांसों के माध्यम से वायु से जुड़े हुए हैं। ऐसे में हम वायु को अपने लिए फायदेमंद कैसे बना सकते हैं?

हमारे शरीर में लगभग छह प्रतिशत वायु है। इसमें से केवल एक प्रतिशत या कुछ कम आपकी सांस है। बाकी दूसरे तरीकों से आपके शरीर में मौजूद है।
परदे पर होने वाले आवाजों से, उनसे पैदा होने वाली दर्शकों की भावनाओं और लोगों के दिमाग पर हो रहे इनके असर से उस हॉल की सीमित हवा बहुत प्रभावित हो जाती हैकेवल सांस में आने-जाने वाली हवा ही आप पर असर नहीं डालती है, आप अपने अंदर हवा किस तरह से रखते हैं, इससे भी फर्क पड़ता है। आपको उस एक प्रतिशत का ख्याल तो रखना ही चाहिए, लेकिन अगर आप शहर में रहते हैं, तो हो सकता है यह आपके हाथ में न हो कि किस तरह की हवा में आप सांस लें। इसलिए आप किसी पार्क में या किसी झील के किनारे टहलने के लिए जाया करें।

खास कर अगर आपके बच्चे हैं, तो यह जरूरी है कि आप कम से कम महीने में एक बार उन्हें बाहर ले जाएं – सिनेमा या कोई वैसी जगह नहीं, क्योंकि परदे पर होने वाले आवाजों से, उनसे पैदा होने वाली दर्शकों की भावनाओं और लोगों के दिमाग पर हो रहे इनके असर से उस हॉल की सीमित हवा बहुत प्रभावित हो जाती है। सिनेमा ले जाने के बजाय आप उन्हें नदी के किनारे ले जाएं, उन्हें तैरना सिखाएं या पहाड़ पर चढऩा सिखाएं। इसके लिए आपको हिमालय तक जाने की जरूरत नहीं है। एक बच्चे के लिए एक छोटी सी पहाड़ी भी बड़े पहाड़ के बराबर है। एक बड़ी चट्टान से भी काम चल जाएगा। आप उस पर चढ़ें और ऊपर जा कर बैठें। बच्चों को इसमें बहुत मजा आएगा और उनकी सेहत बनेगी। आपकी सेहत भी अच्छी हो जाएगी, साथ ही आपका शरीर और दिमाग अलग तरह से काम करने लगेगा। और सबसे बड़ी बात यह होगी कि इस तरह आप सृष्टि के संपर्क में होंगे, जो सबसे महत्वपूर्ण चीज है।
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4>क्यों जागें ब्रह्म मुहूर्त बेला में?


आपने ब्रह्म मुहूर्त की बहुत महिमा सुनी होगी। एक विद्यार्थी से लेकर एक सन्यासी तक के लिए इस मुहूर्त को लाभकारी बताया जाता है। तो आइए जानते हैं कि आखिर कब शुरु होता है यह ब्रह्म मुहूर्त और क्यों लाभदायक है यह :

नरेन:

सद्‌गुरु, मैं ब्रह्म मुहूर्त के बारे में कुछ जानना चाहता हूं। जहां तक मुझे पता है इसकी शुरुआत साढ़े तीन बजे से होती है, लेकिन खत्म कब तक होता है, ये मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम। हम इस मुहूर्त का बेहतरीन फायदा कैसे ले सकते हैं – क्या इस समय ध्यान या कोई क्रिया अथवा दोनों कर सकते हैं? इसी से जुड़ा मेरा अगला सवाल है कि साढ़े तीन बजे का इस मुहूर्त के साथ क्या संबंध है और इसका क्या महत्व है?
सद्‌गुरु:

साढ़े तीन बजे का महत्व सिर्फ 33 डिग्री अक्षांश तक के लिए ही होता है। 3.40 पर सूर्य उस जगह पहुंच जाता है, जहां उसका सीधा संबंध पृथ्वी से हो जाता है। इस समय उसकी किरणें ठीक आपके सिर के ऊपर होती हैं। जब सूर्य की किरणें धरती के दोनों तरफ एक ही जगह पड़ती हैं, तो इंसान का सिस्टम एक खास तरीके से काम करने लगता है और तब एक संभावना बनती है। इस संभावना के इस्तेमाल करने को लेकर लोगों में जागरूकता रही है।
अगर आपके सिस्टम में एक जीवंत बीज पड़ चुका है और अगर आप ब्रह्म मुहूर्त में जागकर कोई भी अभ्यास करने बैठते हैं तो यह बीज आपको सबसे ज्यादा फल देगा।
ब्रह्म मुहूर्त का समय

वैसे तो सूर्य हमेशा आपके सिर के ऊपर ही होता है, लेकिन जब मैं कहता हूं कि सूर्य ठीक आपके सिर पर है तो इसका मतलब है उस समय वह आपके सिर पर लंबवत है। उस समय यह एक विशेष तरीके से काम करता है। यह समय होता है 3.40 से लेकर अगले 12 से 20 मिनट तक।
अब सवाल आता है कि इस समय में हम क्या करें? इस समय में हम ध्यान करें या क्रिया करें? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या करें। इस समय में आपको वही करना चाहिए, जिसमें आपको दीक्षित किया गया है। दरअसल, दीक्षा का मतलब यह नहीं है कि आपको कोई क्रिया सिखाई गई है, इसका मतलब है कि इस क्रिया से आपके सिस्टम को परिचित करा कर आपके सिस्टम में इसे बाकायदा स्थापित किया गया है।
अगर आपके सिस्टम में एक जीवंत बीज पड़ चुका है और अगर आप ब्रह्म मुहूर्त में जागकर कोई भी अभ्यास करने बैठते हैं तो यह बीज आपको सबसे ज्यादा फल देगा। उसकी वजह है कि इस समय धरती आपके सिस्टम के अनुसार काम करती है। अगर आप खास तरीके से जागरूक हो जाते हैं, आपके भीतर एक खास स्तर की जागरूकता आ जाती है तो आपको इस समय का सहज रूप से अहसास हो जाता है। अगर आप सही वक्त पर सोने चले जाते हैं तो आपको उठने के लिए घड़ी देखने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आपको हमेशा पता चल जाएगा कि कब 3.40 का वक्त हो गया है, क्योंकि यह वक्त होते ही आपका शरीर एक अलग तरीके से व्यवहार करने लगेगा।
ब्रह्म मुहूर्त का महत्त्व

आप जिस भी क्रिया में दीक्षित हुए हैं, अगर इस समय वह करना शुरू कर देंगे, तो आपको इसका सर्वश्रेष्ठ फल मिलेगा। हां, यह समय किताब पढ़ कर सीखी हुई क्रिया करने का नहीं है। आपके भीतर पड़ा वह बीज इस समय विशेष सहयोग मिलने से अकुंरित होने लगेगा या दूसरे समय की अपेक्षा ज्यादा तेजी से फूटेगा। यह समय सिर्फ दीक्षित हुए लोगों के लिए ही अनुकूल है। अगर आप दीक्षित नहीं है तो फिर 3.40 हो या 6.40 या फिर 7.40 कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए संध्या काल ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। यह एक तरह का संधि काल होता है।
जब मैं कहता हूं कि सूर्य ठीक आपके सिर पर है तो इसका मतलब है उस समय वह आपके सिर पर लंबवत है। उस समय यह एक विशेष तरीके से काम करता है। यह समय होता है 3.40 से लेकर अगले 12 से 20 मिनट तक।संध्या का मतलब है संक्रमण या एक स्थिति से दूसरी में जाना। सूर्योदय से बीस मिनट पहले व बीस मिनट बाद या सूर्यास्त से बीस मिनट पहले व बीस मिनट बाद का समय संध्या कहलाता है। ऐसा ही वक्त दोपहर बारह बजे और आधी रात को आता है, लेकिन ये दोनों संध्याएं अलग प्रकृति की होती है। दिन में चालीस मिनट की ये चार अवधियां संध्या काल कहलाती हैं। इस संध्या काल में आपका सिस्टम एक खास तरह के संक्रमण से गुजरता है। इस समय में मानव शरीर में मौजूद दो प्रमुख नाडिय़ों –इड़ा और पिंगला के बीच एक खास तरह का संतुलन कायम होता है।
सुबह शाम की ये दो संध्याएं गैर दीक्षित लोगों के लिए ठीक हैं। जबकि जो लोग शक्तिशाली ढंग से दीक्षित हुए हैं, उनके लिए 3.40 का वक्त आदर्श है।


नरेन:

तो क्या मैं अपनी क्रिया आधी रात को कर सकता हूं?
सद्‌गुरु:

अगर व्यक्ति अपने जीवन की दिशा को एक खास तरह से बदलने के लिए इच्छुक नहीं है, तो उसे आधी रात को साधना नहीं करना चाहिए। क्योंकि इस दौरान की गई साधना कुछ ऐसे बदलाव लाती है, जिसे आप शायद संभाल न पाएं।
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5>ध्यान को असरदार बनाने के 3 नुस्खे


बहुत लोगों की यह शिकायत रहती है कि वो ध्यान का अभ्यास तो नियमित करते हैं, लेकिन उन्हें आनंद का अनुभव नहीं मिल पाता। सद्गुरु बता रहे हैं इसका कारण और इसके लिए तीन नुस्खे:


प्रश्‍न:

कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जैसे ही ध्यान में बैठते हैं, उन्हें आनंद का अनुभव होने लगता है। मैं भी ध्यान करता हूं, लेकिन मुझे कुछ भी महसूस नहीं होता।
सद्‌गुरु:

जिस जगत में हम रह रहे हैं, हमें उसकी प्रकृति को समझना होगा। मान लीजिए, बाहर एक सेब का पेड़ लगा है। अगर आपको सेब चाहिए तो ऐसा नहीं होगा कि आपने इच्छा की और सेब आपके हाथ में आ गया।
क्रिया सिखाते हुए करीब तीस घंटे तक आपको निर्देश दिए गए। जब तक आप उन सभी चीजों को तैयार नहीं करेंगे, यह काम नहीं करेगी।अगर आप यूं ही पेड़ पर पत्थर फेंकने लगें, तो भी सेब आपके हाथ नहीं आएगा। आपको सेब के फल पर निशाना लगाकर मारना होगा, केवल तभी वह आपके हाथ में गिरेगा। इसका मतलब यह है कि इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि आप किस चीज की इच्छा कर रहे हैं, हो सकता है अचानक आपने यूं ही पत्थर फेंका और वह जाकर फल में लग गया और फल आपके हाथ आ गया। आपकी कोई इच्छा नहीं थी, आपने तो बस यूं ही पत्थर फेंका और फल आपको मिल गया।

सवाल इसका नहीं है कि आप उसके लिए इच्छा कर रहे हैं या नहीं, जानबूझकर या अनजाने में आपने सही काम कर दिया और आपको उसका फल मिल गया। जीवन के हर पहलू के साथ यह सृष्टि इसी तरीके से काम करती है। अगर आपको यह पसंद नहीं है तो आप कहीं और चले जाइए। लेकिन इस सृष्टि का नियम तो यही है कि जीवन के बेहद सरल मामलों से लेकर जटिलतम पहलुओं तक, जब तक आप सही काम नहीं करेंगे, तब तक सही चीजें आपके साथ घटित नहीं होंगी।

तो अनुभव को लेकर आप चिंता न करें, आप अपने तरीके पर ध्यान दें और यह देखें कि उस क्रिया को करने का सही तरीका क्या है। जो होना है, होकर रहेगा। जो होना है, अगर वह नहीं हुआ तो एक बार फिर से अपने तरीके को देखें, फिर से अपने तरीके पर गौर करें, ध्यान से अपने तरीकों को देखते रहें। कुछ तो ऐसा है, जो आप सही से नहीं कर रहे हैं। फल की ओर मत देखिए। अपनी क्रिया की ओर देखिए। नतीजा तो आना ही है और कोई चारा ही नहीं है।

तीन चीजों का ध्यान रखें:

ध्यान के निर्देश का पालन करें

अगर कुछ नहीं हो रहा है तो इसकी वजह भाग्य या दुर्भाग्य नहीं है। कहीं न कहीं हम कुछ सही करने से चूक रहे हैं। बात जब साधना की आती है तो कुछ उम्मीद न करें, किसी अनुभव की इच्छा न करें। बस साधना को सही तरीके से करना सीखें। इसमें एक तरह की ‘सब्जेक्टिविटि’ यानी व्यक्तिपरकता है। यह एक बीज की तरह है। अगर आप चाहते हैं, बीज में अंकुर आएं तो आपको उसके लिए जरूरी परिस्थितियां पैदा करनी होंगी।इक्कीस मिनट की एक क्रिया को सिखाने के लिए हमने सात दिन का वक्त लिया। क्रिया सिखाते हुए करीब तीस घंटे तक आपको निर्देश दिए गए। जब तक आप उन सभी चीजों को तैयार नहीं करेंगे, यह काम नहीं करेगी। बीज कितना भी शानदार हो, अगर आप उसे जरुरत के हिसाब से धूप, हवा और पानी नहीं देंगे तो वह कभी भी अंकुरित नहीं होगा। यह भी कुछ ऐसा ही है। तो जो भी निर्देश आपको दिए गए हैं, उनका बस पालन कीजिए।

ध्यान पूरी निष्ठा से करें

अगली बात है निष्ठा। अभी आपको जो भी प्रक्रिया बताई गई है, वह आपको उस दिशा में ले जाती है जहां आप सभी को शामिल करने के काबिल बन सकें। अगर आप खुद को सबसे अलग समझने की कोशिश कर रहे हैं, तो इसका मतलब है कि आपके भीतर निष्ठा की कमी है।

हर तरह से आप खुद को जीवन से अलग करके जीवन के उल्लास का आनंद लेना चाहते हैं। इस तरह से काम नहीं चलता। यह ऐसे है कि आप अपनी सांस को रोककर रखते हैं और फिर आप चाहते हैं कि जीवन आपके लिए खूबसूरत बन जाए।

जब बात शरीर की आती है तो आप काफी ‘इनक्लुसिव’ यानी समावेशी हैं, सब कुछ अपने भीतर शामिल कर लेने को तैयार हैं, रोटी हो या सेब, चिकन हो या अंडा, सबको आप अपने भीतर समा लेने को हमेशा तैयार हैं।
बड़ा या विशाल बनकर आप असीमित नहीं हो सकते। विशाल की भी सीमा होती है। आप असीमित तभी हो पाते हैं, जब आप शून्य हो जाते हैं।इन सब चीजों में आपकी सोच बड़ी समावेशी है। लेकिन बाकी सब चीजों के मामले में आप समावेशी नहीं हैं। अगर आप वास्तव में खास बनना चाहते हैं, सबसे अलग बनना चाहते हैं तो अपने लिए एक अच्छे सा शीशे का केस बनवाइए। तब आपको समझ आएगा कि सबसे अलग बनने, खास बनने से कोई लाभ नहीं होता। तन के मामले में समावेशी और मन के मामले में खास बनना – यह ईमानदारी और निष्ठा की कमी है। अगर आाप हर स्तर पर समावेशी हों जाएं, सब को खुद में शामिल करना सीख लें तो जीवन उल्लास से भर जाएगा।

ध्यान के उद्देश्य में तीव्रता लाएं

तीसरी चीज है उद्देश्य में तीव्रता। पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य खुद को बड़ा बनाना नहीं है। पूरी प्रक्रिया का मकसद आपको शून्य में विलीन कर देना है क्योंकि आप जिस चीज की खोज कर रहे हैं, वह असीमितता है, विशालता नहीं है। बड़ा या विशाल बनकर आप असीमित नहीं हो सकते। विशाल की भी सीमा होती है। आप असीमित तभी हो पाते हैं, जब आप शून्य हो जाते हैं। तो इन सब चीजों का उपयोग आप महान या बड़ा बनने के लिए नहीं करते। आप इसका प्रयोग खुद को मिटाने की प्रक्रिया के रूप में कर रहे हैं। अपना उद्देश्य आपको हमेशा स्पष्ट होना चाहिए।

तो तीन चीजें हैं: बुनियादी निर्देश, आपकी निष्ठा और उद्देश्य में तीव्रता। अगर आप इन तीनों चीजों का ध्यान रखते हैं, तो आपको चमत्कारिक परिणाम हासिल होंगे। इन पर आपको रोजाना गौर करना होगा। केवल अभ्यास से पहले ही नहीं, आप जब सुबह सोकर उठते हैं, तब चेक करें: क्या आज मैं ऐसा होने जा रहा हूं? यह चमत्कारिक ढंग से काम करेगा।
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6>चंद्र-ग्रहण के समय क्यों नहीं करते हैं भोजन?


4 अप्रैल को एशिया और अमेरिका के अधिकांश हिस्सों पर आंशिक चंद्रग्रहण होगा। आइये जानते हैं कि चंद्र ग्रहण के समय भोजन करने से शरीर और जागरूकता पर बुरा असर क्यों पड़ता है…


जो चीज चंद्रमा के एक पूर्ण चक्र के दौरान 28 दिनों में होती है, वह चंद्रग्रहण के दौरान ग्रहण के दो से तीन घंटे के भीतर सूक्ष्म रूप में घटित होती है। ऊर्जा के अर्थों में पृथ्वी की ऊर्जा गलती से इस ग्रहण को चंद्रमा का एक पूर्ण चक्र समझ लेती है। पृथ्वी ग्रह में कुछ ऐसी चीजें घटित होती हैं, जिससे अपनी प्राकृतिक स्थिति से हटने वाली कोई भी चीज तेजी से खराब होने लगती है।
इसलिए पका हुआ भोजन किसी सामान्य दिन के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से एक सूक्ष्म रूप में सड़न के चरणों से गुजरता है। अगर आपके शरीर में भोजन मौजूद है, तो दो घंटे के समय में आपकी ऊर्जा लगभग अट्ठाइस दिन बाद की अवस्था में पहुंच जाएगी।यही वजह है कि कच्चे फलों और सब्जियों में कोई बदलाव नहीं होता, जबकि पका हुआ भोजन ग्रहण से पहले जैसा होता है, उसमें एक स्पष्ट बदलाव आता है। जो पहले पौष्टिक भोजन होता है, वह जहर में बदल जाता है। जहर एक ऐसी चीज है जो आपकी जागरूकता को नष्ट कर देता है। अगर वह आपकी जागरूकता को छोटे स्तर पर नष्ट करता है, तो आप सुस्त हो जाते हैं। अगर वह एक खास गहराई तक आपकी जागरूकता नष्ट कर देता है, तो आप नींद में चले जाते हैं। अगर कोई चीज आपकी जागरूकता को पूरी तरह नष्ट कर देता है, तो आपकी मृत्यु हो जाती है। सुस्ती, नींद, मृत्यु – यह बस क्रमिक बढ़ोत्तरी है। इसलिए पका हुआ भोजन किसी सामान्य दिन के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से एक सूक्ष्म रूप में सड़न के चरणों से गुजरता है।

अगर आपके शरीर में भोजन मौजूद है, तो दो घंटे के समय में आपकी ऊर्जा लगभग अट्ठाइस दिन बाद की अवस्था में पहुंच जाएगी। क्या इसका मतलब है कि आप ऐसे दिन कच्चा भोजन कर सकते हैं? नहीं, क्योंकि भोजन जैसे ही आपके शरीर में प्रवेश करता है, आपके पेट में मौजूद रस या सत्व उस पर हमला करके उसे मार देते हैं। वह आधे पके भोजन की तरह हो जाता है और उस पर भी ग्रहण का वही असर होगा। इसका संबंध केवल भोजन से नहीं है। आप जिस रूप में है, उस पर भी इसका असर पड़ता है। अगर आप जो हैं, उसके सहज आयाम से किसी भी रूप में अलग हटते हैं, तो आपका इन शक्तियों के शिकार बनने का खतरा ज्यादा होता है। अगर आप अपनी सहज स्वाभाविक अवस्था में हैं, तो इन शक्तियों का आप पर बहुत कम असर होता है।
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7>भूत-प्रेत बाधा के योग इस प्रकार हैं-
पहला योग-कुण्डली के पहले भाव में चन्द्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रह स्थित हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर भूत-प्रेत, पिशाच या गन्दी आत्माओं का प्रकोप शीघ्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती हैं।
दूसरा योग-यदि किसी कुण्डली में शनि, राहु, केतु या मंगल में से कोई भी ग्रह सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी भूत-प्रेत बाधा या पिशाच या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते हैं।
तीसरा योग-यदि किसी की कुण्डली में शनि-मंगल-राहु की युति हो तो उसे भी ऊपरी बाधा, प्रेत, पिशाच या भूत बाधा तंग करती है। उक्त योगों में दशा-अर्न्तदशा में भी ये ग्रह आते हों और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान है।
भूत-प्रेतों की गति एवं शक्ति अपार होती है। इनकी विभिन्न जातियां होती हैं और उन्हें भूत, प्रेत, राक्षस, पिशाच, यम, शाकिनी, डाकिनी, चुड़ैल, गंधर्व आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। ज्योतिष के अनुसार राहु की महादशा में चंद्र की अंतर्दशा हो और चंद्र दशापति राहु से भाव ६, ८ या १२ में बलहीन हो, तो व्यक्ति पिशाच दोष से ग्रस्त होता है। वास्तुशास्त्र में भी उल्लेख है कि पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, ज्येष्ठा, अनुराधा, स्वाति या भरणी नक्षत्र में शनि के स्थित होने पर शनिवार को गृह-निर्माण आरंभ नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह घर राक्षसों, भूतों और पिशाचों से ग्रस्त हो जाएगा। इस संदर्भ में संस्कृत का यह श्लोक द्रष्टव्य है :
”अजैकपादहिर्बुध्न्यषक्रमित्रानिलान्तकैः।
समन्दैर्मन्दवारे स्याद् रक्षोभूतयुंतगद्यहम॥
भूतादि से पीड़ित व्यक्ति की पहचान उसके स्वभाव एवं क्रिया में आए बदलाव से की जा सकती है। इन विभिन्न आसुरी शक्तियों से पीड़ित होने पर लोगों के स्वभाव एवं कार्यकलापों में आए बदलावों का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है।
भूत पीड़ा :
भूत से पीड़ित व्यक्ति किसी विक्षिप्त की तरह बात करता है। मूर्ख होने पर भी उसकी बातों से लगता है कि वह कोई ज्ञानी पुरुष हो। उसमें गजब की शक्ति आ जाती है। क्रुद्ध होने पर वह कई व्यक्तियों को एक साथ पछाड़ सकता है। उसकी आंखें लाल हो जाती हैं और देह में कंपन होता है।
यक्ष पीड़ा :
यक्ष प्रभावित व्यक्ति लाल वस्त्र में रुचि लेने लगता है। उसकी आवाज धीमी और चाल तेज हो जाती है। इसकी आंखें तांबे जैसी दिखने लगती हैं। वह ज्यादातर आंखों से इशारा करता है।
पिशाच पीड़ा :
पिशाच प्रभावित व्यक्ति नग्न होने से भी हिचकता नहीं है। वह कमजोर हो जाता है और कटु शब्दों का प्रयोग करता है। वह गंदा रहता है और उसकी देह से दुर्गंध आती है। उसे भूख बहुत लगती है। वह एकांत चाहता है और कभी-कभी रोने भी लगता है।
शाकिनी पीड़ा :
शाकिनी से सामान्यतः महिलाएं पीड़ित होती हैं। शाकिनी से प्रभावित स्त्री को सारी देह में दर्द रहता है। उसकी आंखों में भी पीड़ा होती है। वह अक्सर बेहोश भी हो जाया करती है। वह रोती और चिल्लाती रहती है। वह कांपती रहती है।
प्रेत पीड़ा :
प्रेत से पीड़ित व्यक्ति चीखता-चिल्लाता है, रोता है और इधर-उधर भागता रहता है। वह किसी का कहा नहीं सुनता। उसकी वाणी कटु हो जाती है। वह खाता-पीता नही हैं और तीव्र स्वर के साथ सांसें लेता है।
चुडैल पीड़ा :
चुडैल प्रभावित व्यक्ति की देह पुष्ट हो जाती है। वह हमेशा मुस्कराता रहता है और मांस खाना चाहता है।
भूत प्रेत कैसे बनते हैं:- इस सृष्टि में जो उत्पन्न हुआ है उसका नाश भी होना है व दोबारा उत्पन्न होकर फिर से नाश होना है यह क्रम नियमित रूप से चलता रहता है। सृष्टि के इस चक्र से मनुष्य भी बंधा है। इस चक्र की प्रक्रिया से अलग कुछ भी होने से भूत-प्रेत की योनी उत्पन्न होती है। जैसे अकाल मृत्यु का होना एक ऐसा कारण है जिसे तर्क के दृष्टिकोण पर परखा जा सकता है। सृष्टि के चक्र से हटकर आत्मा भटकाव की स्थिति में आ जाती है। इसी प्रकार की आत्माओं की उपस्थिति का अहसास हम भूत के रूप में या फिर प्रेत के रूप में करते हैं। यही आत्मा जब सृष्टि के चक्र में फिर से प्रवेश करती है तो उसके भूत होने का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। अधिकांशतः आत्माएं अपने जीवन काल में संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को ही अपनी ओर आकर्षित करती है, इसलिए उन्हें इसका बोध होता है। जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ रही है वे सैवे जल में डूबकर बिजली द्वारा अग्नि में जलकर लड़ाई झगड़े में प्राकृतिक आपदा से मृत्यु व दुर्घटनाएं भी बढ़ रही हैं और भूत प्रेतों की संख्या भी उसी रफ्तार से बढ़ रही है।
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इस तरह भूत-प्रेतादि प्रभावित व्यक्तियों की पहचान भिन्न-भिन्न होती है। इन आसुरी शक्तियों को वश में कर चुके लोगों की नजर अन्य लोगों को भी लग सकती है। इन शक्तियों की पीड़ा से मुक्ति हेतु निम्नलिखित उपाय करने चाहिए।
जिस प्रकार चोट लगने पर डाक्टर के आने से पहले प्राथमिक उपचार की तरह ही प्रेत बाधा ग्रस्त व्यक्ति का मनोबल बढ़ाने का उपाय किया जाता है और कुछ सावधानियां वरती जाती हैं।
ऐसा करने से प्रेत बाधा की उग्रता कम हो जाती है। इस लेख में भूत-प्रेत बाधा निवारण के यंत्र-मंत्र आधारित उपायों की जानकारी दी गयी है। लाभ प्राप्त करने के लिए इनका निष्ठापूर्वक पालन करें। जब भी किसी भूत-प्रेतबाधा से ग्रस्त व्यक्ति को देखें तो सर्वप्रथम उसके मनोबल को ऊंचा उठायें।
उदाहरणार्थ यदि वह व्यक्ति मन में कल्पना परक दृश्यों को देखता है तथा जोर-जोर से चिल्लोता है कि वह सामने खड़ी या खड़ा है, वह लाल आंखों से मुझे घूर रही या रहा है, वह मुझे खा जाएगा या जाएगी। हालांकि वह व्यक्ति सच कह रहा है पर आप उसे समझाइए- वह कुछ नहीं है, वह केवल तुम्हारा वहम है। लो, हम उसे भगा देते हैं। उसे भगाने की क्रिया करें।
कोई चाकू, छूरी या कैंची उसके समीप रख दे और उसे बताएं नहीं। देवताओं के चित्र हनुमान दुर्गा या काली का टांग दें। गंगाजल छिड़ककर लोहबान, अगरबत्ती या गूग्गल धूप जला दें। इससे उसका मनोबल ऊंचा होगा। प्रेतात्मा को बुरा भला कदापि न कहें। इससे उसका क्रोध और बढ़ जाएगा।
इसमें कोई बुराई नहीं। घर के बड़े-बुजुर्ग भूत-प्रेत से अनजाने अपराध के लिए क्षमा मांग लें। निराकारी योनियों के चित्र बनाना कठिन होता है। यह मृदु बातों तथा सुस्वादुयुक्त भोगों के हवन से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं।
इसके पश्चात आप पीपल के पांच अखंडित स्वच्छ पत्ते लेकर उन पर पांच सुपारी, दो लौंग रख दे तथा गंगाजल में चंदन घिसकर पत्तों पर (रामदूताय हनुमान) दो-दो बार लिख दें। अब उनके सामने धूप-दीप और अगरबत्ती जला दें। इसके बाद बाधाग्रस्त व्यक्ति को छोड़ देने की प्रार्थना करें।
ऐसा करने से प्रेतबाधा नष्ट हो जाती है। फिर भी अगर लाभ न हो तो नीचे दिए गए कुछ उपाय व टोटके सिद्ध करके काम में लें।
यदि बच्चा बाहर से खेलकर, पढ़कर, घूमकर आए और थका, घबराया या परेशान सा लगे तो यह उसे नजर या हाय लगने की पहचान है। ऐसे में उसके सर से ७ लाल मिर्च और एक चम्मच राई के दाने ७ बार घूमाकर उतारा कर लें और फिर आग में जला दें।
यदि बेवजह डर लगता हो, डरावने सपने आते हों, तो हनुमान चालीसा और गजेंद्र मोक्ष का पाठ करें और हनुमान मंदिर में हनुमान जी का श्रृंगार करें व चोला चढ़ाएं।
व्यक्ति के बीमार होने की स्थिति में दवा काम नहीं कर रही हो, तो सिरहाने कुछ सिक्के रखे और सबेरे उन सिक्कों को श्मशान में डाल आए।
व्यवसाय बाधित हो, वांछित उन्नति नहीं हो रही हो, तो ७ शनिवार को सिंदूर, चांदी का वर्क, मोतीचूर के पांच लड्डू, चमेली का तेल, मीठा पान, सूखा नारियलऔर लौंग हनुमान जी को अर्पित करें।
किसी काम में मन न लगता हो, उचाट सा रहता हो, तो रविवार को प्रातः भैरव मंदिर में मदिरा अर्पित करें और खाली बोतल को सात बार अपने सरसे उतारकर पीपल के पेड़ के नीचे रख दें।
शनिवार को नारियल और बादाम जल में प्रवाहित करें।
अशोक वृक्ष के सात पत्ते मंदिर में रख कर पूजा करें। उनके सूखने पर नए पत्ते रखें और पुराने पत्ते पीपल के पेड़ के नीचे रख दें। यह क्रिया नियमित रूप से करें, घर भूत-प्रेत बाधा, नजर दोष आदि से मुक्त रहेगा।
एक कटोरी चावल दान करें और गणेश भगवान को एक पूरी सुपारी रोज चढ़ाएं। यह क्रिया एक वर्ष तक करें, नजर दोष व भूत-प्रेत बाधा आदि के कारण बाधित कार्य पूरे होंगे।
इस तरह ये कुछ सरल और प्रभावशाली टोटके हैं, जिनका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता। ध्यान रहे, नजर दोष, भूत-प्रेत बाधा आदि से मुक्ति हेतु टोटके या उपाय ही करवाने चाहिए, टोना नहीं।
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भूत-प्रेत बाधाओं, जादू-टोनों आदि के प्रभाव से भले-चंगे लोगों का जीवन भी दुखमय हो जाता है। ज्योतिष तथा शाबर ग्रंथों में इन बाधाओं से मुक्ति के अनेकानेक उपाय उपाय बताए गए हैं।
इस प्रकार की बाधा निवारण करने से पूर्व स्वयं की रक्षा भी आवश्यक हें.इसलिए इन मन्त्रों द्वारा अपनी तथा अपने आसन की सुरक्षा कर व्यवस्थित हो जाएँ…
जब भी हम पूजन आदि धार्मिक कार्य करते हैं वहां आसुरी शक्तियां अवश्य अपना प्रभाव दिखाने का प्रयास करती हैं। उन आसुरी शक्तियों को दूर भगाने के लिए हम मंत्रों का प्रयोग कर सकते हैं। इसे रक्षा विधान कहते हैं। नीचे रक्षा विधान के बारे में संक्षिप्त में लिखा गया है। रक्षा विधान का प्रयोग करने से बुरी शक्तियां धार्मिक कार्य में बाधा नहीं पहुंचाती तथा दूर से ही निकल जाती हैं।
रक्षा विधान- रक्षा विधान का अर्थ है जहाँ हम पूजा कर रहे है वहाँ यदि कोई आसुरी शक्तियाँ, मानसिक विकार आदि हो तो चले जाएं, जिससे पूजा में कोई बाधा उपस्थित न हो। बाएं हाथ में पीली सरसों अथवा चावल लेकर दाहिने हाथ से ढंक दें तथा निम्न मंत्र उच्चारण के पश्चात सभी दिशाओं में उछाल दें।
मंत्र—–
ओम अपसर्पन्तु ते भूता: ये भूता:भूमि संस्थिता:।
ये भूता: बिघ्नकर्तारस्तेनश्यन्तु शिवाज्ञया॥
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा: सर्वतो दिशम।
सर्वेषामविरोधेन पूजा कर्मसमारभ्भे॥
देह रक्षा मंत्र:—-
ऊँ नमः वज्र का कोठा, जिसमें पिंड हमारा बैठा। ईश्वर कुंजी ब्रह्मा का ताला, मेरे आठों धाम का यती हनुमन्त रखवाला।
इस मंत्र को किसी भी ग्रहण काल में पूरे समय तक लगातार जप करके सिद्ध कर लें।
किसी दुष्ट व्यक्ति से अहित का डर हो, ग्यारह बार मंत्र पढ़कर शरीर पर फूंक मारे तो आपका शरीर दुश्मन के आक्रमण से हर प्रकार सुरक्षित रहेगा। उल्टी खोपड़ी मरघटिया मसान बांध दें, बाबा भैरो की आन।
इस मंत्र को श्मशान में भैरोजी की पूजा, बलि का भोग देकर सवा लाख मंत्र जपे तथा आवश्यकता के समय चाकू से अपने चारों तरफ घेरा खींचे तो अचूक चैकी बनती है।
इससे किसी भी प्रकार की मायावी शक्ति साधना में विघ्न नहीं डाल सकती। होली, दीपावली या ग्रहण काल में इस मंत्र को सिद्ध कर लें 11 माला जपकर।
ऊँ नमः श्मशानवासिने भूतादिनां पलायन कुरू-कुरू स्वाहा।
इस मंत्र से 108 बार अभिमंत्रित करके लहसुन, हींग को पीसकर इसके अर्क को बाधाग्रस्त रोगी के नाक व आंख में लगायें, भूत तुरंत शरीर छोड़कर चला जाएगा।
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साबुत उड़द की काली दाल के अभिमंत्रित 38 और चावल के 40 अभिमंत्रित दाने मिलाकर किसी गड्ढे में दबा दें और ऊपर से नींबू निचोड़ दें। नींबू निचोड़ते समय शत्रु का नाम लेते रहें, उसका शमन होगा और वह आपके विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाएगा। 
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Thursday, March 24, 2016

2>आठ सिद्धियां, नौ निधियां और दस गौण सिद्धियां

2>|| आठ सिद्धियां, नौ निधियां***( 1 to 3 )

1>आठ सिद्धियां, नौ निधियां और दस गौण सिद्धियां
2>आठ सिद्धियां, नौ निधियां तथा गौण सिद्धियां, चौपाई:-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन्ह जानकी          माता
3>अष्ट सिद्धयाँ व नव निधियाँ

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1>आठ सिद्धियां, नौ निधियां और दस गौण सिद्धियां

(Asth Siddhi, Nav Niddhi and Das Gaun Siddhi) -

चौपाई:-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन्ह जानकी माता ।। (31)

यह हनुमान चालीसा की एक चौपाई जिसमे तुलसीदास जी लिखते है कि हनुमानजी अपने भक्तो को आठ प्रकार की सिद्धयाँ तथा नौ प्रकार की निधियाँ प्रदान कर सकते हैं ऐसा सीतामाता ने उन्हे वरदान दिया । यह अष्ट सिद्धियां बड़ी ही चमत्कारिक होती है जिसकी बदौलत हनुमान जी ने असंभव से लगने वाले काम आसानी से सम्पन किये थे। आइये अब हम आपको इन अष्ट सिद्धियों, नौ निधियों और भगवत पुराण में वर्णित दस गौण सिद्धियों के बारे में विस्तार से बताते है।


आठ सिद्धयाँ :

हनुमानजी को जिन आठ सिद्धियों का स्वामी तथा दाता बताया गया है वे सिद्धियां इस प्रकार हैं-

1.अणिमा: इस सिद्धि के बल पर हनुमानजी कभी भी अति सूक्ष्म रूप धारण कर सकते हैं।

इस सिद्धि का उपयोग हनुमानजी तब किया जब वे समुद्र पार कर लंका पहुंचे थे। हनुमानजी ने अणिमा सिद्धि का उपयोग करके अति सूक्ष्म रूप धारण किया और पूरी लंका का निरीक्षण किया था। अति सूक्ष्म होने के कारण हनुमानजी के विषय में लंका के लोगों को पता तक नहीं चला।

2. महिमा: इस सिद्धि के बल पर हनुमान ने कई बार विशाल रूप धारण किया है।

जब हनुमानजी समुद्र पार करके लंका जा रहे थे, तब बीच रास्ते में सुरसा नामक राक्षसी ने उनका रास्ता रोक लिया था। उस समय सुरसा को परास्त करने के लिए हनुमानजी ने स्वयं का रूप सौ योजन तक बड़ा कर लिया था।

इसके अलावा माता सीता को श्रीराम की वानर सेना पर विश्वास दिलाने के लिए महिमा सिद्धि का प्रयोग करते हुए स्वयं का रूप अत्यंत विशाल कर लिया था।

3. गरिमा: इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी स्वयं का भार किसी विशाल पर्वत के समान कर सकते हैं।

गरिमा सिद्धि का उपयोग हनुमानजी ने महाभारत काल में भीम के समक्ष किया था। एक समय भीम को अपनी शक्ति पर घमंड हो गया था। उस समय भीम का घमंड तोड़ने के लिए हनुमानजी एक वृद्ध वानर रूप धारक करके रास्ते में अपनी पूंछ फैलाकर बैठे हुए थे। भीम ने देखा कि एक वानर की पूंछ से रास्ते में पड़ी हुई है, तब भीम ने वृद्ध वानर से कहा कि वे अपनी पूंछ रास्ते से हटा लें। तब वृद्ध वानर ने कहा कि मैं वृद्धावस्था के कारण अपनी पूंछ हटा नहीं सकता, आप स्वयं हटा दीजिए। इसके बाद भीम वानर की पूंछ हटाने लगे, लेकिन पूंछ टस से मस नहीं हुई। भीम ने पूरी शक्ति का उपयोग किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इस प्रकार भीम का घमंड टूट गया।

4. लघिमा: इस सिद्धि से हनुमानजी स्वयं का भार बिल्कुल हल्का कर सकते हैं और पलभर में वे कहीं भी आ-जा सकते हैं।

जब हनुमानजी अशोक वाटिका में पहुंचे, तब वे अणिमा और लघिमा सिद्धि के बल पर सूक्ष्म रूप धारण करके अशोक वृक्ष के पत्तों में छिपे थे। इन पत्तों पर बैठे-बैठे ही सीता माता को अपना परिचय दिया था।

5. प्राप्ति: इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी किसी भी वस्तु को तुरंत ही प्राप्त कर लेते हैं। पशु-पक्षियों की भाषा को समझ लेते हैं, आने वाले समय को देख सकते हैं।

रामायण में इस सिद्धि के उपयोग से हनुमानजी ने सीता माता की खोज करते समय कई पशु-पक्षियों से चर्चा की थी। माता सीता को अशोक वाटिका में खोज लिया था।

6. प्राकाम्य: इसी सिद्धि की मदद से हनुमानजी पृथ्वी गहराइयों में पाताल तक जा सकते हैं, आकाश में उड़ सकते हैं और मनचाहे समय तक पानी में भी जीवित रह सकते हैं। इस सिद्धि से हनुमानजी चिरकाल तक युवा ही रहेंगे। साथ ही, वे अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी देह को कारण कर सकते हैं। इस सिद्धि से वे किसी भी वस्तु को चिरकाल तक प्राप्त कर सकते हैं।

इस सिद्धि की मदद से ही हनुमानजी ने श्रीराम की भक्ति को चिरकाल का प्राप्त कर लिया है।

7. ईशित्व: इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी को दैवीय शक्तियां प्राप्त हुई हैं।

ईशित्व के प्रभाव से हनुमानजी ने पूरी वानर सेना का कुशल नेतृत्व किया था। इस सिद्धि के कारण ही उन्होंने सभी वानरों पर श्रेष्ठ नियंत्रण रखा। साथ ही, इस सिद्धि से हनुमानजी किसी मृत प्राणी को भी फिर से जीवित कर सकते हैं।

8. वशित्व: इस सिद्धि के प्रभाव से हनुमानजी जितेंद्रिय हैं और मन पर नियंत्रण रखते हैं।

वशित्व के कारण हनुमानजी किसी भी प्राणी को तुरंत ही अपने वश में कर लेते हैं। हनुमान के वश में आने के बाद प्राणी उनकी इच्छा के अनुसार ही कार्य करता है। इसी के प्रभाव से हनुमानजी अतुलित बल के धाम हैं।
नौ निधियां :

हनुमान जी प्रसन्न होने पर जो नव निधियां भक्तों को देते है वो इस प्रकार है

1. पद्म निधि : पद्मनिधि लक्षणो से संपन्न मनुष्य सात्विक होता है तथा स्वर्ण चांदी आदि का संग्रह करके दान करता है ।

2. महापद्म निधि : महाप निधि से लक्षित व्यक्ति अपने संग्रहित धन आदि का दान धार्मिक जनों में करता है ।

3. नील निधि : निल निधि से सुशोभित मनुष्य सात्विक तेजसे संयुक्त होता है। उसकी संपति तीन पीढीतक रहती है।

4. मुकुंद निधि : मुकुन्द निधि से लक्षित मनुष्य रजोगुण संपन्न होता है वह राज्यसंग्रह में लगा रहता है।

5. नन्द निधि : नन्दनिधि युक्त व्यक्ति राजस और तामस गुणोंवाला होता है वही कुल का आधार होता है ।

6. मकर निधि : मकर निधि संपन्न पुरुष अस्त्रों का संग्रह करनेवाला होता है ।

7. कच्छप निधि : कच्छप निधि लक्षित व्यक्ति तामस गुणवाला होता है वह अपनी संपत्ति का स्वयं उपभोग करता है ।

8. शंख निधि : शंख निधि एक पीढी के लिए होती है।

9. खर्व निधि : खर्व निधिवाले व्यक्ति के स्वभाव में मिश्रीत फल दिखाई देते हैं ।
दस गौण सिद्धियां :

इसके अलावा भगवत पुराण में भगवान कृष्ण ने दस गौण सिद्धियों का वर्णन और किया है जो निम्न प्रकार है-

1. अनूर्मिमत्वम्
2. दूरश्रवण
3. दूरदर्शनम्
4. मनोजवः
5. कामरूपम्
6. परकायाप्रवेशनम्
7. स्वछन्द मृत्युः
8. देवानां सह क्रीडा अनुदर्शनम्
9. यथासंकल्पसंसिद्धिः
10. आज्ञा अप्रतिहता गतिः-
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2>आठ सिद्धियां, नौ निधियां तथा गौण सिद्धियां, चौपाई:-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन्ह जानकी माता

आठ सिद्धियां, नौ निधियां तथा गौण सिद्धियां

चौपाई:-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन्ह जानकी माता ।। (31)
यह हनुमान चालीसा की एक चौपाई जिसमे तुलसीदास जी लिखते है कि हनुमानजी अपने भक्तो को आठ प्रकार की सिद्धयाँ तथा नौ प्रकार की निधियाँ प्रदान कर सकते हैं ऐसा सीतामाता ने उन्हे वरदान दिया । यह अष्ट सिद्धियां बड़ी ही चमत्कारिक होती है जिसकी बदौलत हनुमान जी ने असंभव से लगने वाले काम आसानी से सम्पन किये थे। आइये अब हम आपको इन अष्ट सिद्धियों, नौ निधियों और भगवत पुराण में वर्णित दस गौण सिद्धियों के बारे में विस्तार से बताते है।


आठ सिद्धयाँ :
हनुमानजी को जिन आठ सिद्धियों का स्वामी तथा दाता बताया गया है वे सिद्धियां इस प्रकार हैं-


1.अणिमा: इस सिद्धि के बल पर हनुमानजी कभी भी अति सूक्ष्म रूप धारण कर सकते हैं।
इस सिद्धि का उपयोग हनुमानजी तब किया जब वे समुद्र पार कर लंका पहुंचे थे। हनुमानजी ने अणिमा सिद्धि का उपयोग करके अति सूक्ष्म रूप धारण किया और पूरी लंका का निरीक्षण किया था। अति सूक्ष्म होने के कारण हनुमानजी के विषय में लंका के लोगों को पता तक नहीं चला।
2. महिमा: इस सिद्धि के बल पर हनुमान ने कई बार विशाल रूप धारण किया है।
जब हनुमानजी समुद्र पार करके लंका जा रहे थे, तब बीच रास्ते में सुरसा नामक राक्षसी ने उनका रास्ता रोक लिया था। उस समय सुरसा को परास्त करने के लिए हनुमानजी ने स्वयं का रूप सौ योजन तक बड़ा कर लिया था।
इसके अलावा माता सीता को श्रीराम की वानर सेना पर विश्वास दिलाने के लिए महिमा सिद्धि का प्रयोग करते हुए स्वयं का रूप अत्यंत विशाल कर लिया था।
3. गरिमा: इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी स्वयं का भार किसी विशाल पर्वत के समान कर सकते हैं।
गरिमा सिद्धि का उपयोग हनुमानजी ने महाभारत काल में भीम के समक्ष किया था। एक समय भीम को अपनी शक्ति पर घमंड हो गया था। उस समय भीम का घमंड तोड़ने के लिए हनुमानजी एक वृद्ध वानर रूप धारक करके रास्ते में अपनी पूंछ फैलाकर बैठे हुए थे। भीम ने देखा कि एक वानर की पूंछ से रास्ते में पड़ी हुई है, तब भीम ने वृद्ध वानर से कहा कि वे अपनी पूंछ रास्ते से हटा लें। तब वृद्ध वानर ने कहा कि मैं वृद्धावस्था के कारण अपनी पूंछ हटा नहीं सकता,आप स्वयं हटा दीजिए। इसके बाद भीम वानर की पूंछ हटाने लगे, लेकिन पूंछ टस से मस नहीं हुई। भीम ने पूरी शक्ति का उपयोग किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इस प्रकार भीम का घमंड टूट गया।
4. लघिमा: इस सिद्धि से हनुमानजी स्वयं का भार बिल्कुल हल्का कर सकते हैं और पलभर में वे कहीं भी आ-जा सकते हैं।
जब हनुमानजी अशोक वाटिका में पहुंचे, तब वे अणिमा और लघिमा सिद्धि के बल पर सूक्ष्म रूप धारण करके अशोक वृक्ष के पत्तों में छिपे थे। इन पत्तों पर बैठे-बैठे ही सीता माता को अपना परिचय दिया था।
5. प्राप्ति: इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी किसी भी वस्तु को तुरंत ही प्राप्त कर लेते हैं। पशु-पक्षियों की भाषा को समझ लेते हैं, आने वाले समय को देख सकते हैं।
रामायण में इस सिद्धि के उपयोग से हनुमानजी ने सीता माता की खोज करते समय कई पशु-पक्षियों से चर्चा की थी। माता सीता को अशोक वाटिका में खोज लिया था।
6. प्राकाम्य: इसी सिद्धि की मदद से हनुमानजी पृथ्वी गहराइयों में पाताल तक जा सकते हैं, आकाश में उड़ सकते हैं और मनचाहे समय तक पानी में भी जीवित रह सकते हैं। इस सिद्धि से हनुमानजी चिरकाल तक युवा ही रहेंगे। साथ ही,वे अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी देह को कारण कर सकते हैं। इस सिद्धि से वे किसी भी वस्तु को चिरकाल तक प्राप्त कर सकते हैं।
इस सिद्धि की मदद से ही हनुमानजी ने श्रीराम की भक्ति को चिरकाल का प्राप्त कर लिया है।
7. ईशित्व: इस सिद्धि की मदद से हनुमानजी को दैवीय शक्तियां प्राप्त हुई हैं।
ईशित्व के प्रभाव से हनुमानजी ने पूरी वानर सेना का कुशल नेतृत्व किया था। इस सिद्धि के कारण ही उन्होंने सभी वानरों पर श्रेष्ठ नियंत्रण रखा। साथ ही, इस सिद्धि से हनुमानजी किसी मृत प्राणी को भी फिर से जीवित कर सकते हैं।
8. वशित्व: इस सिद्धि के प्रभाव से हनुमानजी जितेंद्रिय हैं और मन पर नियंत्रण रखते हैं।
वशित्व के कारण हनुमानजी किसी भी प्राणी को तुरंत ही अपने वश में कर लेते हैं। हनुमान के वश में आने के बाद प्राणी उनकी इच्छा के अनुसार ही कार्य करता है। इसी के प्रभाव से हनुमानजी अतुलित बल के धाम हैं।


नौ निधियां : -
हनुमान जी प्रसन्न होने पर जो नव निधियां भक्तों को देते है वो इस प्रकार है


1. पद्म निधि:- पद्मनिधि लक्षणो से संपन्न मनुष्य सात्विक होता है तथा स्वर्ण चांदी आदि का संग्रह करके दान करता है ।


2. महापद्म निधि:- महाप निधि से लक्षित व्यक्ति अपने संग्रहित धन आदि का दान धार्मिक जनों में करता है ।


3. नील निधि:- निल निधि से सुशोभित मनुष्य सात्विक तेजसे संयुक्त होता है। उसकी संपति तीन पीढीतक रहती है।


4. मुकुंद निधि:- मुकुन्द निधि से लक्षित मनुष्य रजोगुण संपन्न होता है वह राज्यसंग्रह में लगा रहता है।


5. नन्द निधि:- नन्दनिधि युक्त व्यक्ति राजस और तामस गुणोंवाला होता है वही कुल का आधार होता है ।


6. मकर निधि:- मकर निधि संपन्न पुरुष अस्त्रों का संग्रह करनेवाला होता है ।


7. कच्छप निधि:- कच्छप निधि लक्षित व्यक्ति तामस गुणवाला होता है वह अपनी संपत्ति का स्वयं उपभोग करता है ।


8. शंख निधि:- शंख निधि एक पीढी के लिए होती है।


9. खर्व निधि:- खर्व निधिवाले व्यक्ति के स्वभाव में मिश्रीत फल दिखाई देते हैं ।


दस गौण सिद्धियां : इसके अलावा भगवत पुराण में भगवान कृष्ण ने दस गौण सिद्धियों का वर्णन और किया है जो निम्न प्रकार है
1. अनूर्मिमत्वम्
2. दूरश्रवण
3. दूरदर्शनम्
4. मनोजवः
5. कामरूपम्
6. परकायाप्रवेशनम्
7. स्वछन्द मृत्युः
8. देवानां सह क्रीडा अनुदर्शनम्
9. यथासंकल्पसंसिद्धिः
10. आज्ञा अप्रतिहता गतिः
सोलह सिद्धिया:-
गौण सिद्धियों का वर्णन और किया है जो निम्न प्रकार है
1. वाक् सिद्धि:- जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न. जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं!
2. दिव्य दृष्टि:- दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं!
3. प्रज्ञा सिद्धि:- प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें!
4. दूरश्रवण: - इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता!
5. जलगमन: - यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो!
6. वायुगमन: -इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं!
7. अदृश्यकरण: - अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं!
8. विषोका: - इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं,दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं!
9. देवक्रियानुदर्शन:- इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं!
10. कायाकल्प:- कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव तोग्मुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं!
11. सम्मोहन: - सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं!
12. गुरुत्व: - गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं!
13. पूर्ण पुरुषत्व:- इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की!
14. सर्वगुण संपन्न:-जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता,प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं!
15. इच्छा मृत्यु:-इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं!
16. अनुर्मि:- अनुर्मि का अर्थ हैं-जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावनाका कोई प्रभाव न हो!
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3>अष्ट सिद्धयाँ व नव निधियाँ

आठ सिद्धियां, नौ निधियां तथा गौण सिद्धियां गणेश जी की पत्नियों के नाम रिद्धि और सिद्धि हैं। एक सामान्य मनुष्य जीवन में सुख-सम्पत्ति की कामना करता है और तीर्थ, व्रत, उपवास, पूजा-पाठ, साधु-संतों की संगत-सेवा, वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि का अध्ययन-श्रवण करता है। इसी क्रम में वह हनुमान चालीसा का पाठ भी करता है।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन्ह जानकी माता॥
रुद्रावतार राम भक्त हनुमान माता सीता के समक्ष प्रस्तुत हुए तो माता सीता ने हनुमान जी महाराज को वरदान दिया कि वे अपने भक्तों को आठ प्रकार की सिद्धयाँ तथा नौ प्रकार की निधियाँ प्रदान कर सकते हैं।
अष्ट सिद्धयाँ
(1). अणिमा : अति सूक्ष्म रूप धारण करना।
(2). महिमा : विशाल रूप धारण करना।
(3). गरिमा : स्वयं का भार किसी विशाल पर्वत के समान करना।
(4). लघिमा : स्वयं का भार न के बराबर करना और पल भर में वे कहीं भी आ-जा सकने की क्षमता।
(5). प्राप्ति : किसी भी वस्तु को तुरन्त-तत्काल प्राप्त कर लेना। पशु-पक्षियों की बोली-भाषा को समझ लेना और भविष्य में होने वाली घटनाओं को जान लेना।
(6). प्राकाम्य : पृथ्वी गहराइयों-पाताल तक जाने, आकाश में उड़ने और मनचाहे समय तक पानी में भी जीवित रह सकने का सामर्थ।
(7). ईशित्व : दैवीय शक्तियाँ प्राप्त करना।
(8). वशित्व : जितेंद्रिय होना और मन पर नियंत्रण रखना।अतुलित बल की प्राप्ति।
दस गौण सिद्धियां : श्री मद् भागवत पुराण में भगवान् कृष्ण ने निम्न दस गौण सिद्धियों का वर्णन किया है
(1). अनूर्मिमत्वम्, (2). दूरश्रवण, (3). दूरदर्शनम्, (4). मनोजवः, (5). कामरूपम्, (6). परकायाप्रवेशनम्, (7). स्वछन्द मृत्युः, (8). देवानां सह क्रीडा अनुदर्शनम्, (9). यथा संकल्प संसिद्धिः, (10). आज्ञा अप्रतिहता गतिः।
अन्य सोलह गौण सिद्धियाँ :
(1). वाक् सिद्धि :- मनुष्य जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, कभी व्यर्थ न. जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो। वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप और वरदान देने की क्षमता होती है।
(2). दिव्य दृष्टि :- दिव्य दृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये। भविष्य में क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्य दृष्टि से युक्त महापुरुष बन जाता हैं।
(3). प्रज्ञा सिद्धि :- प्रज्ञा-मेधा अर्थात स्मरण शक्ति, बुद्धि, विवेक, ज्ञान इत्यादि। ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेना। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ मनुष्य के भीतर अंतर्मन में एक चेतना पुंज का जाग्रत होना।
(4). दूरश्रवण :- भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता।
(5). जल गमन :- इस सिद्धि को प्राप्त करके योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो।
(6). वायुगमन :- इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित करके मनुष्य एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल आ जा सकता हैं।
(7). अदृश्यकरण :- अपने स्थूल शरीर को सूक्ष्म रूप में परिवर्तित कर अदृश्य कर देना।
(8). विषोका :- स्वयं को अनेक रूपों में विभक्त-परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैंऔर दूसरे स्थान पर अलग रूप धारण कर लेना।
(9). देव क्रियानुदर्शन :- इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं। उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता है।
(10). कायाकल्प :- कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन। समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती है। इससे युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और युवा ही बना रहता है।
(11). सम्मोहन :- वशीकरण-सम्मोहन किसी भी अन्य व्यक्ति-प्राणी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया है।
(12). गुरुत्व :- गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान। जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता है। भगवान् श्री कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया है।
(13). पूर्ण पुरुषत्व :- इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना।
(14). सर्व गुण संपन्न :- व्यक्ति में संसार के सभी उदात्त गुणों यथा दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि का समावेश। इन्हीं गुणों के कारण मनुष्य विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता है और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता है।
(15). इच्छा मृत्यु :- इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति काल जयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता है।
(16). अनुर्मि :- अनुर्मि का अर्थ है मनुष्य पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावनाका कोई प्रभाव न होना।
नव निधियाँ
(1). पद्म निधि :- पद्मनिधि लक्षणो से संपन्न मनुष्य सात्विक होता है तथा स्वर्ण चांदी आदि का संग्रह करके दान करता है ।
(2). महापद्म निधि :- महाप निधि से लक्षित व्यक्ति अपने संग्रहित धन आदि का दान धार्मिक जनों में करता रहता है ।
(3). नील निधि :- नील निधि से सुशोभित मनुष्य सात्विक तेज से संयुक्त होता है। उसकी संपत्ति तीन पीढी तक रहती है।
(4). मुकुंद निधि :- मुकुन्द निधि से लक्षित मनुष्य रजोगुण संपन्न होता है। वह राज्य संग्रह में लगा रहता है।
(5). नन्द निधि :- नन्दनिधि युक्त व्यक्ति राजस और तामस गुणोंवाला होता है। वही कुल का आधार होता है।
(6). मकर निधि :- मकर निधि संपन्न पुरुष अस्त्रों का संग्रह करनेवाला होता है।
(7). कच्छप निधि :- कच्छप निधि लक्षित व्यक्ति तामस गुणवाला होता है। वह अपनी संपत्ति का स्वयं उपभोग करता है।
(8). शंख निधि :- शंख निधि एक पीढी के लिए होती है।
(9). खर्व निधि :- खर्व निधि वाले व्यक्ति के स्वभाव में मिश्रीत फल दिखाई देते हैं।


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1>মন্ত্র+6টি মন্ত্র + তন্ত্র+ যোগ





|| ৬ টি মন্ত্র ||

জীবন যতক্ষন আছে প্রকৃতির নিয়মে 
ততক্ষণ নানান দুঃখ কষ্ট আনন্দ।
ভালোমন্দ সবই থাকবে।
জীবনে চলার পথে নানা বাঁধা তো আসবেই।
আর বাঁধা যত প্রবল হয় সেই বাঁধা  
অতিক্রম করবার  প্রচেষ্টাও ততই প্রবল হওয়া
উচিৎ।তবেই জীবনে সকল অভীষ্ট লাভ হয়।
নচেৎ জীবন কূপ দ্ধকে পরিণত হয়।
তবে জীবন সহজ সরল করবার নানা উপায়
আমাদের বেদ, পূরণে বর্ণিত আছে,
কিছু মন্ত্রের সাহায্যে।

তাই আজ 6টি মন্ত্র উল্লেখ করছি।
এই ৬ টি মন্ত্র প্রতিদিন জপ করলে জীবনে কোনও দিন খারাপ সময় আসবে না!
আসলে শব্দ-মন্ত্র-আনন্দ, এই তিন একই সূত্রে বাঁধা। 
শব্দের দ্বারাই উচ্চারিত হয় মন্ত্র,
এই মন্ত্রই জন্ময় দেয় আনন্দের।

সংস্কৃত শব্দ "মন্ত্র"এর জন্ম হয়েছে "মন" এবং "ত্রা" শব্দ দুটি থেকে। মন হল আমাদের শান্তির উৎসস্থল, আর "ত্রা" শব্দের অর্থ হল পদ্ধতি। অর্থাৎ যে পদ্ধতিতে মনকে আনন্দে রাখা যায়, তাই হল মন্ত্র। 
 তাই তো জীবনেকে সুন্দর করে তুলতে কিছু মন্ত্রে সাহায্য নিতেই হবে।
আর আনন্দ অভিমুখে যাত্রা কিছু মন্ত্রোচ্চারণ ছাড়া সম্ভব নয়! 
তাই তো মন এবং জীবনকে আনন্দে রাখতে মন্ত্রের সাহায্য নিতেই হবে।
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1> "ওম" মন্ত্র:

এই "ওম" মন্ত্রটি এমনই এক মন্ত্র যার উপকারিতা বলে শেষ করা যাবে না। 
মনকে সকল প্রকার উত্তেজনা থেকে ঠান্ডা করার পাশাপাশি নানান রোগব্যাধি দূর করতে "ওম' মন্ত্রের কোনও বিকল্প  নাই বললেই চলে। এক কথায় বলা যেতে পারে সুন্দর জীবনের চাবিকাঠি হল এই "ওম" মন্ত্র। 
তাই তো প্রতিদিন "ওম" মন্ত্রের জপ করলে শত চেষ্টা করেও দুঃখ নিজের জায়গা করে নিতে পারবে না মানুষের জীবনে।
তাই এই "ওম" মন্ত্র ই সর্বশ্রেষ্ঠ মন্ত্র।




2> "ওম সার্বেশম সাভাস্তির ভবতু" 

এটি শান্তির মন্ত্র।

মনে মনে সারা দিন ধরে এই মন্ত্রটি জপ করতে থাকুন। দেখবেন মন শান্ত হবে। মনোযোগ বাড়বে, মন ভাল চিন্তায় ভরে যাবে এবং অবশ্যই জীবনে শান্তি নিয়ে আসবে। যেদিন অফিসে একটু ঝামেলার কাজ থাকবে অথবা যদি কোনও কাজের কারণে মন অশান্ত হয়ে ওঠে, তাহলে এই মন্ত্রটি পাঠ করতে শুরু করবেন। দেখবেন নিমেষে মন চাঙ্গা হয়ে উঠবে।

3> গায়ত্রী মন্ত্র:

ওঁ ভূর্ভুবঃ স্বঃ
তৎ সবিতুর্বরেণ্যং
ভর্গো দেবস্য ধীমহি
ধিয়ো য়ো নঃ প্রচোদয়াৎ।।

আমাদের ঋক বেদে উল্লেখ রয়েছে গায়েত্রী মন্ত্র পাঠ করলে আমাদের সব ক্ষত, তা মনের হোক, শরীরের হোক কী মস্তিষ্কের, সব ধরনের যন্ত্রণার উপশোম ঘটে। সেই সঙ্গে মন, খারাপ চিন্তা থেকে মুক্তি পায়। ফলে আমাদের শরীর পজেটিভ এনার্জিতে পরিপূর্ণ হয়ে ওঠে এবং সর্বপরি এই মন্ত্র আমাদের আশেপাশের পরিবেশে উপস্থিত নেগেটিভ এনার্জিকেও শেষ করে দেয়। ফলে খারাপ কিছু ঘটার আশঙ্কা একেবারে কমে যায়। প্রসঙ্গত, মস্তিষ্ক এবং হার্টের কর্মক্ষমতা বাড়াতেও এই মন্ত্রটির কোনও বিকল্প হয় না বললেই চলে।

4> "ওম নমঃ শিবায়":

দেবাদিদেব মহাদেব হলেন সৃষ্টি কর্তা তিনিই শিব তিনিই জীবনের উৎস। তাই শিবের শরণাপন্ন হওয়া মানে সমস্ত দুঃখের অবশান নিশ্চিত। জীবন হয়ে উঠবে অনন্দে আলোকময়। তাই তো প্রতিদিন ভগবান শিবের এই মন্ত্রটি পাঠ করলে  জীবনের অর্থ খুঁজে পাওয়া  সম্ভব হয়। সেই সঙ্গে মন শান্ত হবে, আত্মবিশ্বাস বৃদ্ধি পাবে, স্ট্রেস বা মানসিক চাপ কমবে, আশান্তি দূর হবে এবং জীবনে অভীষ্ট লাভের পথ প্রশস্ত হবে।

5> "ওম গম গনপাতেয়া নামহ":

এই মন্ত্রের অর্থ খুবই সহজ ও সরল, "আমি ভগবান গনেশের সামনে নত হয়ে প্রর্থনা করছি, আমার জীবনের সব বাঁধা এবং যন্ত্রণা যেন দূর হয়।" 
বাস্তবিকই  মন্ত্রটির প্রতি বিশ্বাস রেখে এই মন্ত্রটি পাঠ করলে সব ধরেনর বাঁধা বিঘ্ন একে একে দুর হতে থাকে। 
সেইকারণেই  যখনই মনে হবে জীবন থমকে গেছে, নানান বাঁধা বিপত্তি সকল অগ্রগতির পথ রুদ্ধ করে রেখেছে।
 তখন এই মন্ত্রটি পাঠ করা শুরু করলে সুফল মিলতে দেরি লাগবে না। 
শুধু তাই নয় , জীবনের লক্ষে পৌঁছাতে যখনই বাঁধার সম্মুখিন হতে হয়, তখনই ভগবান গনেশের এই মন্ত্রটি জপ করা উচিত। এমনটা করলে ফল যে পাবেনই, তা হলফ করে বলতে পারি।

6> "ওম মানি পদমে হাম":

প্রাচীন বৌদ্ধ ধর্মগ্রন্থ থেকে জানা গেছে এই মন্ত্রটি দিনে কম করে হাজার বার মনে মনে পাঠ করলে জীবনে কোনও দিন অশান্তির মেঘ দেখা যায় না। শুধু তাই নয়,মৃত্যুর সময় সেই ব্যক্তিকে যখন দাহ করা হয়, তখন চিতার ধোঁয়া এবং গন্ধ যারা যার কাছে পৌঁছায়, তার জীবনেরও সব পাপ ধুয়ে যায়। ঠ
এহেন সত্য বচনে বুঝতে অসুবিধা হয় না এই মন্ত্রটি কতটা শক্তিশালী। প্রসঙ্গত, এমনও বিশ্বাস আছে, এই মন্ত্রটি যিনি মন দিয়ে পঠ করবেন, তিনি জীবনে চলার পথে ভাল বন্ধু পাবেন, আত্মবিশ্বাসে পরিপূর্ণ থাকবেন, খারাপ কিছু ঘটবে না, কেউ ঠকাতে পারবে না এবং মনের সব ইচ্ছা পূরণ হবে।
                      ইতি
             আদ্যনাথ রায় চৌধুরী।

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যদা যদা হি ধর্মস্য 
গ্লানির্ভবতি ভারত ।
অভ্যুত্থানমধর্মস্য 
তদাত্মানং সৃজাম্যহম্ !!
পরিত্রাণায় সাধুনাং 
বিনাশায় চ দুষ্কৃতাম্ ।
ধর্মসংস্হাপনার্থায় 
সম্ভবামি যুগে যুগে !!

অর্থাৎ হে অর্জুন, জগতে যখন ধর্মের গ্লানি দেখা দেয় এবং অধর্মের উত্থান ঘটে, তখনই আমি নিজেকে সৃজন করি । সজ্জনদের রক্ষা দুর্জনদের বিনাশের জন্য এবং ধর্মকে
সংস্হাপনের জন্য যুগে যুগে আমি আবির্ভূত হই ।
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    || আদ্যা স্তোত্র ||
     ঔং নম আদ্যায়ৈ
শৃণুবত্স প্রবক্ষ্যামি আদ্যাস্তোত্রং মহাফলমঃ |যঃপঠেতঃ সততংভক্ত্যা সএববিষ্ণুবল্লভঃ ||১||

মৃত্যুর্ব্যাধিভয়ংতস্য নাস্তিকিঞ্চিতঃ কলৌযুগে |
অপুত্রা লভতেপুত্রং ত্রিপক্ষং শ্রবণংযদি || ২||

দ্বৌমাসৌ বন্ধনান্মুক্তি বিপ্রর্বক্ত্রাতঃ শ্রুতংযদি |
মৃতবত্সা জীববত্সা ষণ্মাসং শ্রবণং যদি || ৩||

নৌকায়াং সঙ্কটে যুদ্ধে পঠনাজ্জয়মাপ্নুয়াতঃ |
লিখিত্বা স্থাপয়েদঃগেহেনা গ্নিচৌরভয়ং ক্বচিতঃ || ৪||

রাজস্থানে জয়ী নিত্যং প্রসন্নাঃ সর্ব্বদেবতা |
ঔং হ্রীং ব্রহ্মাণী ব্রহ্মলোকে চ বৈকুণ্ঠে সর্ব্বমঙ্গলা || ৫||

ইন্দ্রাণী অমরাবত্যামবিকা বরুণালয়ে|
যমালয়ে কালরূপা কুবেরভবনে শুভা || ৬||

মহানন্দাগ্নিকোনে চ বায়ব্যাং মৃগবাহিনী |
নৈঋত্যাংরক্তদন্তাচ ঐশাণ্যাং শূলধারিণী || ৭||

পাতালে বৈষ্ণবীরূপা সিংহলে দেবমোহিনী |
সুরসা চ মণীদ্বিপে লঙ্কায়াং ভদ্রকালিকা || ৮||

রামেশ্বরী সেতুবন্ধে বিমলা পুরুষোত্তমে |
বিরজা ঔড্রদেশে চ কামাক্ষ্যা নীলপর্বতে || ৯||

কালিকা বঙ্গদেশে চ অযোধ্যায়াং মহেশ্বরী |
বারাণস্যামন্নপূর্ণা গয়াক্ষেত্রে গয়েশ্বরী || ১০||

কুরুক্ষেত্রে ভদ্রকালী ব্রজে কাত্যায়নী পরা |
দ্বারকায়াং মহামায়া মথুরায়াং মাহেশ্বরী || ১১||

ক্ষুধা ত্বং সর্ব্বভূতানাং বেলা ত্বং সাগরস্য চ |
নবমী শুক্লপক্ষস্য কৃষ্ণসৈকাদশী পরা || ১২||

দক্ষসা দুহিতা দেবী দক্ষযজ্ঞ বিনাশিনী |
রামস্যজানকী ত্বংহি রাবণধ্বংসকারিণী || ১৩||

চণ্ডমুণ্ডবধে দেবী রক্তবীজবিনাশিনী |
নিশুম্ভশুম্ভমথিনী মধুকৈটভঘাতিনী || ১৪||

বিষ্ণুভক্তিপ্রদা দুর্গা সুখদা মোক্ষদা সদা |
আদ্যাস্তবমিমংপুণ্যং যঃপঠেতঃ সততংনরঃ || ১৫||

সর্ব্বজ্বরভয়ং ন স্যাতঃ সর্ব্বব্যাধিবিনাশনমঃ |
কোটিতীর্থফলংতস্য লভতেনাত্র সংশয়ঃ || ১৬||
জয়া মে চাগ্রতঃ পাতু বিজয়া পাতু পৃষ্ঠতঃ |
নারায়ণী শীর্ষদেশে সর্ব্বঙ্গে সিংহবাহিনী || ১৭||

শিবদূতী উগ্রচণ্ডা প্রত্যঙ্গে পরমেশ্বরী |
বিশালাক্ষী মহামায়া কৌমারী সঙ্খিনী শিবা || ১৮||

চক্রিণী জয়ধাত্রী চ রণমত্তা রণপ্রিয়া |
দুর্গা জয়ন্তী কালী চ ভদ্রকালী মহোদরী || ১৯||

নারসিংহী চ বারাহী সিদ্ধিদাত্রী সুখপ্রদা |
ভয়ঙ্করী মহারৌদ্রী মহাভযবিনাশিনী || ২০||

ইতি ব্রহ্ময়ামলে ব্রহ্মনারদসংবাদে আদ্যা স্তোত্রং সমাপ্তমঃ ||
===============================


প্রণাম মন্ত্র

==শ্রীকৃষ্ণ প্রনাম==

হে কৃষ্ণ করুণা সিন্ধু দীনবন্ধু জগৎপথে।
গোপেশ গোপীকা কান্ত রাধা কান্ত নমহস্তুতে ।।

==শ্রীরাধারানী প্রণাম==

তপ্ত কাঞ্চন গৌরাঙ্গীং রাধে বৃন্দাবনেশ্বরী।
বৃষভানুসূতে দেবী তাং প্রণমামি হরি প্রিয়ে।।


==তুলসী প্রণাম==

বৃন্দায়ৈ তুলসী দৈব্যে প্রিয়ায়ৈ কেশবস্য চ । 
কৃষ্ণভক্তি প্রদে দেবী সত্যবত্যৈঃ নমঃনমঃ ।।

==সূর্য প্রণাম==

ওঁ জবাকুসুম সঙ্কাশং কাশ্যপেয়ং মহাদ্যুতিং।
ধ্বান্তারিং সর্ব পাপঘ্নং প্রণতোহস্মি দিবাকরম্।।

==পিতা প্রনাম==

পিতা স্বর্গ, পিতা ধর্ম,পিতাহি পরমং তপ।
পিতোরি প্রিতিমা পন্নে প্রিয়ন্তে সর্ব দেবতাঃ।।

==মাতা প্রনাম==

মাতা জননী ধরিত্রী, দয়াদ্র হৃদয়া সতী।
দেবীভ্যো রমণী শ্রেষ্ঠা নির্দ্দোশা সর্ব দুঃখহারা।।

==দেহ শুচীর মন্ত্র==

ওঁ অপবিত্র পবিত্রোবাসর্বাবস্থান গতহ্বপিবা।
যৎ সরেত পুন্ডরিকাক্ষং স বাহ্য অভ্যান্তরে শুচি।।

পাপোহং পাপ কর্মাহং পাপাত্মা পাপ সম্ভাবান্।
ত্রাহি মাং পুন্ডরীকাক্ষং সর্বপাপো হরো হরি।।


==গুরু প্রণাম==

অখন্ড মন্ডলা কারং ব্যাপ্তং যেন চরাচরম।
তদপদং দর্শিতং যেন তস্মৈ শ্রী গুরুবে নমঃ ।।
 ১||

অজ্ঞান তিমিরান্ধস্য জ্ঞানাঞ্জন শলাকয়া।
চক্ষুরুন্মিলিত যেন তস্মৈ শ্রী গুরুবে নমঃ ।।
 ২||

গুরু ব্রহ্মা গুরু বিষ্ণু গুরুদেব মহেশ্বর।
গুরুরেব পরং ব্রহ্ম তস্মৈ শ্রী গুরুবে নমঃ ।।

===========================

 || ৬ টি মন্ত্র ||

জীবন যতক্ষন আছে প্রকৃতির নিয়মে
ততক্ষণ নানান দুঃখ কষ্ট আনন্দ।
ভালোমন্দ সবই থাকবে।
জীবনে চলার পথে নানা বাঁধা তো আসবেই।
আর বাঁধা যত প্রবল হয় সেই বাঁধা
অতিক্রম করবার  প্রচেষ্টাও ততই প্রবল হওয়া
উচিৎ।তবেই জীবনে সকল অভীষ্ট লাভ হয়।
নচেৎ জীবন কূপ মন্ডুকে পরিণত হয়।
তবে জীবন সহজ সরল করবার নানা উপায়
আমাদের বেদ, পূরণে বর্ণিত আছে,
কিছু মন্ত্রের সাহায্যে।

তাই আজ 6টি মন্ত্র উল্লেখ করছি।
এই ৬ টি মন্ত্র প্রতিদিন জপ করলে জীবনে কোনও দিন খারাপ সময় আসবে না!
আসলে শব্দ-মন্ত্র-আনন্দ, এই তিন একই সূত্রে বাঁধা।
শব্দের দ্বারাই উচ্চারিত হয় মন্ত্র,
এই মন্ত্রই জন্ময় দেয় আনন্দের।

সংস্কৃত শব্দ "মন্ত্র"এর জন্ম হয়েছে "মন" এবং "ত্রা" শব্দ দুটি থেকে। মন হল আমাদের শান্তির উৎসস্থল, আর "ত্রা" শব্দের অর্থ হল পদ্ধতি। অর্থাৎ যে পদ্ধতিতে মনকে আনন্দে রাখা যায়, তাই হল মন্ত্র।
 তাই তো জীবনেকে সুন্দর করে তুলতে কিছু মন্ত্রে সাহায্য নিতেই হবে।
আর আনন্দ অভিমুখে যাত্রা কিছু মন্ত্রোচ্চারণ ছাড়া সম্ভব নয়!
তাই তো মন এবং জীবনকে আনন্দে রাখতে মন্ত্রের সাহায্য নিতেই হবে।
                     anrc
====================
1> "ওম" মন্ত্র:

এই "ওম" মন্ত্রটি এমনই এক মন্ত্র যার উপকারিতা বলে শেষ করা যাবে না।
মনকে সকল প্রকার উত্তেজনা থেকে ঠান্ডা করার পাশাপাশি নানান রোগব্যাধি দূর করতে "ওম' মন্ত্রের কোনও বিকল্প  নাই বললেই চলে। এক কথায় বলা যেতে পারে সুন্দর জীবনের চাবিকাঠি হল এই "ওম" মন্ত্র।
তাই তো প্রতিদিন "ওম" মন্ত্রের জপ করলে শত চেষ্টা করেও দুঃখ নিজের জায়গা করে নিতে পারবে না মানুষের জীবনে।
তাই এই "ওম" মন্ত্র ই সর্বশ্রেষ্ঠ মন্ত্র।




2> "ওম সার্বেশম সাভাস্তির ভবতু"

এটি শান্তির মন্ত্র।

মনে মনে সারা দিন ধরে এই মন্ত্রটি জপ করতে থাকুন। দেখবেন মন শান্ত হবে। মনোযোগ বাড়বে, মন ভাল চিন্তায় ভরে যাবে এবং অবশ্যই জীবনে শান্তি নিয়ে আসবে। যেদিন অফিসে একটু ঝামেলার কাজ থাকবে অথবা যদি কোনও কাজের কারণে মন অশান্ত হয়ে ওঠে, তাহলে এই মন্ত্রটি পাঠ করতে শুরু করবেন। দেখবেন নিমেষে মন চাঙ্গা হয়ে উঠবে।

3> গায়ত্রী মন্ত্র:

ওঁ ভূর্ভুবঃ স্বঃ
তৎ সবিতুর্বরেণ্যং
ভর্গো দেবস্য ধীমহি
ধিয়ো য়ো নঃ প্রচোদয়াৎ।।

আমাদের ঋক বেদে উল্লেখ রয়েছে গায়েত্রী মন্ত্র পাঠ করলে আমাদের সব ক্ষত, তা মনের হোক, শরীরের হোক কী মস্তিষ্কের, সব ধরনের যন্ত্রণার উপশোম ঘটে। সেই সঙ্গে মন, খারাপ চিন্তা থেকে মুক্তি পায়। ফলে আমাদের শরীর পজেটিভ এনার্জিতে পরিপূর্ণ হয়ে ওঠে এবং সর্বপরি এই মন্ত্র আমাদের আশেপাশের পরিবেশে উপস্থিত নেগেটিভ এনার্জিকেও শেষ করে দেয়। ফলে খারাপ কিছু ঘটার আশঙ্কা একেবারে কমে যায়। প্রসঙ্গত, মস্তিষ্ক এবং হার্টের কর্মক্ষমতা বাড়াতেও এই মন্ত্রটির কোনও বিকল্প হয় না বললেই চলে।

4> "ওম নমঃ শিবায়":

দেবাদিদেব মহাদেব হলেন সৃষ্টি কর্তা তিনিই শিব তিনিই জীবনের উৎস। তাই শিবের শরণাপন্ন হওয়া মানে সমস্ত দুঃখের অবশান নিশ্চিত। জীবন হয়ে উঠবে অনন্দে আলোকময়। তাই তো প্রতিদিন ভগবান শিবের এই মন্ত্রটি পাঠ করলে  জীবনের অর্থ খুঁজে পাওয়া  সম্ভব হয়। সেই সঙ্গে মন শান্ত হবে, আত্মবিশ্বাস বৃদ্ধি পাবে, স্ট্রেস বা মানসিক চাপ কমবে, আশান্তি দূর হবে এবং জীবনে অভীষ্ট লাভের পথ প্রশস্ত হবে।

5> "ওম গম গনপাতেয়া নামহ":

এই মন্ত্রের অর্থ খুবই সহজ ও সরল, "আমি ভগবান গনেশের সামনে নত হয়ে প্রর্থনা করছি, আমার জীবনের সব বাঁধা এবং যন্ত্রণা যেন দূর হয়।"
বাস্তবিকই  মন্ত্রটির প্রতি বিশ্বাস রেখে এই মন্ত্রটি পাঠ করলে সব ধরেনর বাঁধা বিঘ্ন একে একে দুর হতে থাকে।
সেইকারণেই  যখনই মনে হবে জীবন থমকে গেছে, নানান বাঁধা বিপত্তি সকল অগ্রগতির পথ রুদ্ধ করে রেখেছে।
 তখন এই মন্ত্রটি পাঠ করা শুরু করলে সুফল মিলতে দেরি লাগবে না।
শুধু তাই নয় , জীবনের লক্ষে পৌঁছাতে যখনই বাঁধার সম্মুখিন হতে হয়, তখনই ভগবান গনেশের এই মন্ত্রটি জপ করা উচিত। এমনটা করলে ফল যে পাবেনই, তা হলফ করে বলতে পারি।

6> "ওম মানি পদমে হাম":

প্রাচীন বৌদ্ধ ধর্মগ্রন্থ থেকে জানা গেছে এই মন্ত্রটি দিনে কম করে হাজার বার মনে মনে পাঠ করলে জীবনে কোনও দিন অশান্তির মেঘ দেখা যায় না। শুধু তাই নয়,মৃত্যুর সময় সেই ব্যক্তিকে যখন দাহ করা হয়, তখন চিতার ধোঁয়া এবং গন্ধ যারা যার কাছে পৌঁছায়, তার জীবনেরও সব পাপ ধুয়ে যায়।
এহেন সত্য বচনে বুঝতে অসুবিধা হয় না এই মন্ত্রটি কতটা শক্তিশালী। প্রসঙ্গত, এমনও বিশ্বাস আছে, এই মন্ত্রটি যিনি মন দিয়ে পঠ করবেন, তিনি জীবনে চলার পথে ভাল বন্ধু পাবেন, আত্মবিশ্বাসে পরিপূর্ণ থাকবেন, খারাপ কিছু ঘটবে না, কেউ ঠকাতে পারবে না এবং মনের সব ইচ্ছা পূরণ হবে।
                      ইতি
             আদ্যনাথ রায় চৌধুরী।

========================

যদা যদা হি ধর্মস্য
গ্লানির্ভবতি ভারত ।
অভ্যুত্থানমধর্মস্য
তদাত্মানং সৃজাম্যহম্ !!
পরিত্রাণায় সাধুনাং
বিনাশায় চ দুষ্কৃতাম্ ।
ধর্মসংস্হাপনার্থায়
সম্ভবামি যুগে যুগে !!

অর্থাৎ হে অর্জুন, জগতে যখন ধর্মের গ্লানি দেখা দেয় এবং অধর্মের উত্থান ঘটে, তখনই আমি নিজেকে সৃজন করি । সজ্জনদের রক্ষা দুর্জনদের বিনাশের জন্য এবং ধর্মকে
সংস্হাপনের জন্য যুগে যুগে আমি আবির্ভূত হই ।
=========================

    || আদ্যা স্তোত্র ||
     ঔং নম আদ্যায়ৈ
শৃণুবত্স প্রবক্ষ্যামি আদ্যাস্তোত্রং মহাফলমঃ |যঃপঠেতঃ সততংভক্ত্যা সএববিষ্ণুবল্লভঃ ||১||

মৃত্যুর্ব্যাধিভয়ংতস্য নাস্তিকিঞ্চিতঃ কলৌযুগে |
অপুত্রা লভতেপুত্রং ত্রিপক্ষং শ্রবণংযদি || ২||

দ্বৌমাসৌ বন্ধনান্মুক্তি বিপ্রর্বক্ত্রাতঃ শ্রুতংযদি |
মৃতবত্সা জীববত্সা ষণ্মাসং শ্রবণং যদি || ৩||

নৌকায়াং সঙ্কটে যুদ্ধে পঠনাজ্জয়মাপ্নুয়াতঃ |
লিখিত্বা স্থাপয়েদঃগেহেনা গ্নিচৌরভয়ং ক্বচিতঃ || ৪||

রাজস্থানে জয়ী নিত্যং প্রসন্নাঃ সর্ব্বদেবতা |
ঔং হ্রীং ব্রহ্মাণী ব্রহ্মলোকে চ বৈকুণ্ঠে সর্ব্বমঙ্গলা || ৫||

ইন্দ্রাণী অমরাবত্যামবিকা বরুণালয়ে|
যমালয়ে কালরূপা কুবেরভবনে শুভা || ৬||

মহানন্দাগ্নিকোনে চ বায়ব্যাং মৃগবাহিনী |
নৈঋত্যাংরক্তদন্তাচ ঐশাণ্যাং শূলধারিণী || ৭||

পাতালে বৈষ্ণবীরূপা সিংহলে দেবমোহিনী |
সুরসা চ মণীদ্বিপে লঙ্কায়াং ভদ্রকালিকা || ৮||

রামেশ্বরী সেতুবন্ধে বিমলা পুরুষোত্তমে |
বিরজা ঔড্রদেশে চ কামাক্ষ্যা নীলপর্বতে || ৯||

কালিকা বঙ্গদেশে চ অযোধ্যায়াং মহেশ্বরী |
বারাণস্যামন্নপূর্ণা গয়াক্ষেত্রে গয়েশ্বরী || ১০||

কুরুক্ষেত্রে ভদ্রকালী ব্রজে কাত্যায়নী পরা |
দ্বারকায়াং মহামায়া মথুরায়াং মাহেশ্বরী || ১১||

ক্ষুধা ত্বং সর্ব্বভূতানাং বেলা ত্বং সাগরস্য চ |
নবমী শুক্লপক্ষস্য কৃষ্ণসৈকাদশী পরা || ১২||

দক্ষসা দুহিতা দেবী দক্ষযজ্ঞ বিনাশিনী |
রামস্যজানকী ত্বংহি রাবণধ্বংসকারিণী || ১৩||

চণ্ডমুণ্ডবধে দেবী রক্তবীজবিনাশিনী |
নিশুম্ভশুম্ভমথিনী মধুকৈটভঘাতিনী || ১৪||

বিষ্ণুভক্তিপ্রদা দুর্গা সুখদা মোক্ষদা সদা |
আদ্যাস্তবমিমংপুণ্যং যঃপঠেতঃ সততংনরঃ || ১৫||

সর্ব্বজ্বরভয়ং ন স্যাতঃ সর্ব্বব্যাধিবিনাশনমঃ |
কোটিতীর্থফলংতস্য লভতেনাত্র সংশয়ঃ || ১৬||
জয়া মে চাগ্রতঃ পাতু বিজয়া পাতু পৃষ্ঠতঃ |
নারায়ণী শীর্ষদেশে সর্ব্বঙ্গে সিংহবাহিনী || ১৭||

শিবদূতী উগ্রচণ্ডা প্রত্যঙ্গে পরমেশ্বরী |
বিশালাক্ষী মহামায়া কৌমারী সঙ্খিনী শিবা || ১৮||

চক্রিণী জয়ধাত্রী চ রণমত্তা রণপ্রিয়া |
দুর্গা জয়ন্তী কালী চ ভদ্রকালী মহোদরী || ১৯||

নারসিংহী চ বারাহী সিদ্ধিদাত্রী সুখপ্রদা |
ভয়ঙ্করী মহারৌদ্রী মহাভযবিনাশিনী || ২০||

ইতি ব্রহ্ময়ামলে ব্রহ্মনারদসংবাদে আদ্যা স্তোত্রং সমাপ্তমঃ ||
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প্রণাম মন্ত্র

==শ্রীকৃষ্ণ প্রনাম==

হে কৃষ্ণ করুণা সিন্ধু দীনবন্ধু জগৎপথে।
গোপেশ গোপীকা কান্ত রাধা কান্ত নমহস্তুতে ।।

==শ্রীরাধারানী প্রণাম==

তপ্ত কাঞ্চন গৌরাঙ্গীং রাধে বৃন্দাবনেশ্বরী।
বৃষভানুসূতে দেবী তাং প্রণমামি হরি প্রিয়ে।।


==তুলসী প্রণাম==

বৃন্দায়ৈ তুলসী দৈব্যে প্রিয়ায়ৈ কেশবস্য চ ।
কৃষ্ণভক্তি প্রদে দেবী সত্যবত্যৈঃ নমঃনমঃ ।।

==সূর্য প্রণাম==

ওঁ জবাকুসুম সঙ্কাশং কাশ্যপেয়ং মহাদ্যুতিং।
ধ্বান্তারিং সর্ব পাপঘ্নং প্রণতোহস্মি দিবাকরম্।।

==পিতা প্রনাম==

পিতা স্বর্গ, পিতা ধর্ম,পিতাহি পরমং তপ।
পিতোরি প্রিতিমা পন্নে প্রিয়ন্তে সর্ব দেবতাঃ।।

==মাতা প্রনাম==

মাতা জননী ধরিত্রী, দয়াদ্র হৃদয়া সতী।
দেবীভ্যো রমণী শ্রেষ্ঠা নির্দ্দোশা সর্ব দুঃখহারা।।

==দেহ শুচীর মন্ত্র==

ওঁ অপবিত্র পবিত্রোবাসর্বাবস্থান গতহ্বপিবা।
যৎ সরেত পুন্ডরিকাক্ষং স বাহ্য অভ্যান্তরে শুচি।।

পাপোহং পাপ কর্মাহং পাপাত্মা পাপ সম্ভাবান্।
ত্রাহি মাং পুন্ডরীকাক্ষং সর্বপাপো হরো হরি।।


==গুরু প্রণাম==

অখন্ড মন্ডলা কারং ব্যাপ্তং যেন চরাচরম।
তদপদং দর্শিতং যেন তস্মৈ শ্রী গুরুবে নমঃ ।।
 ১||

অজ্ঞান তিমিরান্ধস্য জ্ঞানাঞ্জন শলাকয়া।
চক্ষুরুন্মিলিত যেন তস্মৈ শ্রী গুরুবে নমঃ ।।
 ২||

গুরু ব্রহ্মা গুরু বিষ্ণু গুরুদেব মহেশ্বর।
গুরুরেব পরং ব্রহ্ম তস্মৈ শ্রী গুরুবে নমঃ ।।

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1>Post=1***साधना***( 1 to 35 )

1>साधना:-   तंत्र साधना, मंत्र साधना, यन्त्र साधना, योग साधना
                   a>भावः---
                   b>तंत्र साधना----
                   c>यन्त्र:--
2>--1.कर्म छः 6 प्रकार के होते है :तंत्र तांत्रिक साधना दो प्रकार की होती है- 1.एक वाम मार्गी तथा दूसरी
       2.दक्षिण मार्गी। वाम मार्गी साधना बेहद कठिन है।
           a>वाम मार्गी तंत्र साधना में 6 प्रकार के कर्म बताए गए हैं जिन्हें षट् कर्म कहते हैं।
           b>1.मारण, 2.मोहनं, 3.स्तम्भनं, 4.विद्वेषण, 5.उच्चाटन, 6.वशीकरण, 6.आकर्षण, 8.यक्षिणी साधना,                      9.रसायन क्रिया तंत्र के ये 9प्रयोग हैं।
      2- छः कर्म की अधिष्ठात्री देवियाँ:-
      3--a>साधना की दिशा:-
           b>दिशा शूल विचार:-
           c>दिन विचार:-
4->साधना की ऋतु
       a>सूर्योदय से लेकर प्रत्येक रात-दिन में दस-दस घड़ी  ( घटी ,पल, विपल )
       b>षटकर्म में ऋतु विचार:
       c>कुछ आचार्य प्रातः
       d>समय विचार:-
5-हवन सामग्री का प्रकार:------------------------6-साधना का समय:-----
7>-सिद्ध योग:-तिथि विचार:----------------------8>तिथि स्वामी तिथि स्वामी तिथि स्वामी=
9>शुभ तिथियाँ नाम=-----------------------------10>अशुभ तिथियाँ नाम=
11>सिद्ध तिथि योग चक्रम=----------------------12>इनके अलावा भी कुछ तिथियाँ होती हैं |=
13>सिद्धा तिथियाँ=-------------------------------14>दग्धा, विष एवं हुताषन तिथियाँ=
15>मासशून्य तिथियाँ=---------------------------16>तिथि श्रेणियां –
17>-जप माला माला गूँथने का तरीका :-=-------18>माला जपने में उंगलियों का नियमः-=
                                                                                 a-शांतिकर्म,b-आकर्षण c-विद्वेषण
                                                                                 d-और मारण प्रयोग
19>माला जप के नियम तथा भेद:- जप तीन प्रकार के होते हैं –=
           a-वाचिक- b-उपांशु-c-मानसिक-
20>माला गूँथने का तरीका=----------------------21>-योगिनी विचार:–=
22>योगिनी चक्र:-=-------------------------------23>दिशा तिथियाँ=
24>-आसन का प्रकार:-=-------------------------25>कलश विधान :–=
26>नक्षत्रो के देवता -------------------------------27>राशियों के नाम एवम उनके स्वामी :-
28>हवन सामग्री:-=-------------------------------29>यंत्र लिखते हुए निम्न बातो को ध्यान मेँ
                                                                                रखना आवश्यक है।=
30>मार्जन मंत्र :-=--------------------------------31>आवश्यक निर्देश:-=
32>मंत्र साधना:–=--------------------------------33>मंत्र नियम :=
34>यन्त्र साधना:-=-------------------------------35>साधना करने से पूर्व, उस मंत्र का संस्कार:-=

----------------------------------------------------------------------------------------------------------------
1>साधना:- तंत्र साधना, मंत्र साधना, यन्त्र साधना, योग साधना


हिंदू धर्म में हजारों तरह की साधनाओं का वर्णन मिलता है। साधना से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। व्यक्ति सिद्धियां इसलिए प्राप्त करना चाहता है, क्योंकि या तो वह उससे सांसारिक लाभ प्राप्त करना चाहता है या फिर आध्यात्मिक लाभ।

यहाँ मैं बहुत ही सरल रूप में तंत्र, मंत्र, यन्त्र, तांत्रिक, तांत्रिक साधना,तांत्रिक क्रिया अथवा पञ्च मकार के बारे में संचिप्त में वर्णन करूँगा।

तंत्र एक विज्ञानं है जो प्रयोग में विश्वास रखता है। इसे विस्तार में जानने के लिए एक सिद्ध गुरु की आवश्यकता है। अतः मैं यहाँ सिर्फ़ उसके सूक्ष्म रूप को ही दर्शा रहा हूँ।

पार्वतीजी ने महादेव शिव से प्रश्न किया की हे महादेव, कलयुग मे धर्म या मोक्ष प्राप्ति का क्या मार्ग होगा? उनके इस प्रश्न के उत्तर मे महादेव शिव ने उन्हे समझते हुए जो भी व्यक्त किया तंत्र उसी को कहते हैं।

योगिनी तंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान हो जाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद

a>भावः----
भावः न रह जाने की वजह से होगा। कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे। इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नही होगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एक ऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँ खोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करता है। कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोग जो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नही मिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युग में ही मिलेगा. तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा की कलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजा अर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा इस पर शिव जी ने कहा की कलयुग में तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा।
तंत्र में साधक को बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा।

परन्तु ऐसा करने के लिए साधक के अन्दर इश्वर को पाने का नशा और प्रयोगों से कुछ प्राप्त करने की तीव्र इच्षा होनी चाहिए। तंत्र के प्रायोगिक क्रियाओं को करने के लिए एक तांत्रिक अथवा साधक को सही मंत्र, तंत्र और यन्त्र का ज्ञान जरुरी है।
सभी षटकर्म तंत्र, मंत्र, यन्त्र,तांत्रिक, और तंत्र साधना मंत्रों के प्रयोग के पूर्व की जानकारी है:-

b>तंत्र साधना----

तंत्र साधना:– तंत्र साधना में छः प्रकार के प्रयोग बताए गए हैं जिन्हें षटकर्म कहते हैं। तंत्र के आदि गुरु भगवान् शिव माने जाते है तंत्र श्रृष्टि में पाए गए रासायनिक या प्राकृतिक वस्तुओं के सही समाहार की कला को कहते हैं। इस समाहार से बनने वाली उस औषधि या वस्तु से प्राणियों का कल्याण होता है। तंत्र तन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। जो वस्तु इस तन की रक्षा करे उसे ही तंत्र कहते हैं।

c>यन्त्र:--
यन्त्र: मंत्र औरतंत्र को यदि सही से प्रयोग किया जाए तो वह प्राणियों के कष्ट दूर करने में सफल है। पर तंत्र के रसायनों को एक उचित पात्र को आवश्यकता होती है। ताकि साधारण मनुष्य उस पात्र को आसानी से अपने पास रख सके या उसका प्रयोग कर सके। इस पात्र या साधन को ही यन्त्र कहते हैं। एक ऐसा पात्र जो तंत्र और मन्त्र को अपने में समिलित कर के आसानी से प्राणियों के कष्ट दूर करे वही यन्त्र है। हवन कुंड को सबसे श्रेष्ठ
यन्त्र मन गया है। आसन,तलिस्मान, ताबीज इत्यादि भी यंत्र माने जाते है। कई प्रकार को आकृति को भी यन्त्र मन गया है।
जैसे श्री यन्त्र,
काली यन्त्र,
महा मृतुन्जय यन्त्र इत्यादि।
यन्त्र शब्द यं तथा त्र के मिलाप से बना है। यं को पुर्व में यम यानी काल कहा जाता था। इसलिए जो
यम से हमारी रक्षा करे उसे ही यन्त्र कहा जाता है।
इसलिए एक सफल तांत्रिक साधक को मंत्र, तंत्र और यन्त्र का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। विज्ञानं के प्रयोगों जैसे ही यदि तीनो में से किसी की भी मात्रा या प्रकार ग़लत हुई तो सफलता नही मिलेगी।

2>--1.कर्म छः 6 प्रकार के होते है :-तंत्र तांत्रिक साधना दो प्रकार की होती है- 1.एक वाम मार्गी तथा दूसरी 2.दक्षिण मार्गी। वाम मार्गी साधना बेहद कठिन है।

a>वाम मार्गी तंत्र साधना में 6 प्रकार के कर्म बताए गए हैं जिन्हें षट् कर्म कहते हैं।

शांति, वक्ष्य, स्तम्भनानि, विद्वेषणोच्चाटने तथा।

गोरणों तनिसति षट कर्माणि मणोषणः॥

अर्थात 1.शांति कर्म, 2.वशीकरण, 3.स्तंभन, 4.विद्वेषण, 5.उच्चाटन, 6.मारण ये छ: तांत्रिक षट् कर्म।

इसके अलावा नौ प्रयोगों का वर्णन मिलता है:-

मारण मोहनं स्तम्भनं विद्वेषोच्चाटनं वशम्‌।

आकर्षण यक्षिणी चारसासनं कर त्रिया तथा॥

b>1.मारण, 2.मोहनं, 3.स्तम्भनं, 4.विद्वेषण, 5.उच्चाटन, 6.वशीकरण, 6.आकर्षण, 8.यक्षिणी साधना, 9.रसायन क्रिया तंत्र के ये 9प्रयोग हैं।

रोग कृत्वा गृहादीनां निराण शन्तिर किता।

विश्वं जानानां सर्वेषां निधयेत्व मुदीरिताम्‌॥

पूधृत्तरोध सर्वेषां स्तम्भं समुदाय हृतम्‌।

स्निग्धाना द्वेष जननं मित्र, विद्वेषण मतत॥

प्राणिनाम प्राणं हरपां मरण समुदाहृमत्‌।

जिससे रोग, कुकृत्य और ग्रह आदि की शांति होती है, उसको शांति कर्म कहा जाता है

और जिस कर्म से सब प्राणियों को वश में किया जाए, उसको वशीकरण प्रयोग कहते हैं

जिससे प्राणियों की प्रवृत्ति रोक दी जाए, उसको स्तम्भन कहते हैं

दो प्राणियों की परस्पर प्रीति को छुड़ा देने वाला नाम विद्वेषण है

जिस कर्म से किसी प्राणी को देश आदि से पृथक कर दिया जाए, उसको उच्चाटन प्रयोग कहते हैं

जिस कर्म से प्राण हरण किया जाए, उसको मारण कर्म कहते हैं।

2- छः कर्म की अधिष्ठात्री देवियाँ:-

शांति कर्म की अधिष्ठात्री देवी रति है,

वशीकरण की देवी सरस्वती है,

स्तम्भन की लक्ष्मी,

ज्येष्ठा, उच्चाटन की दुर्गा

मारण की देवी भद्र काली है।

जो कर्म करना हो, उसके आरंभ में उसकी पूजा करें।

3--a>साधना की दिशा:- इसका तात्पर्य यह है कि जो प्रयोग करना हो उसी दिशा में मुख करके बैठें।

शान्ति कर्म ईशान दिशा में,

वशीकरण उत्तर से,

स्तम्भन पूर्व में,

विद्वेषण नेऋत्य में करना चाहिए,

षटकर्म दिशा निर्णय(की ओर मुख करके मंत्र जप):-

1-शांति कर्म- ईशान दिशा में की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

2-वशीकरण- (पुष्टि कर्म) उत्तर की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

3-स्तंभन- पूर्व की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

4-विद्वेष्ण- नैर्ऋत्य की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

5-उच्चाटन- वायव्य की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

6-मारण -प्रयोग आग्नेय दिशा की ओर मुख करके मंत्र जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

– तथा धन प्राप्ति हेतु पश्चिम

b>दिशा शूल विचार:-

मंगल बुध उत्तर दिशी काला,

सोम शनिश्चर पूरब न चाला।

रवी शुक्र जो पश्चिम जाय, होय हानि पथ सुख नहीं पाय।

गुरु को दक्षिण करे पयाना, ‘‘निर्भय’’ ताको होय न आना।।

c>दिन विचार:-

शांति कर्म- प्रयोग गुरुवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

वशीकरण- सोमवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

स्तंभन- गुरुवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

विद्वेषण- शनिवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

उच्चाटन- मंगलवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है। तथा

मारण- प्रयोग शनिवार से आरंभ करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

4-साधना की ऋतु      

a>सूर्योदय से लेकर प्रत्येक रात-दिन में दस-दस घड़ी(हिंदू मापदण्ड के अनुसार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के समय को 1 दिवस कहा जाता है। 1 दिवस में 60 घटी (घड़ी) होते हैं, 1 घटी में 60 पल होते हैं और 1 पल में 60 विपल होते हैं। समय के वर्तमान मापदण्ड के अनुसार 1 पल 24 सेकंड का होता है।) में बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त, शिशिर ऋतु भोग पाया करती हैं। कोई-कोई तांत्रिक यह कहते हैं कि दोपहर से पहले- पहले बसंत, मध्य में ग्रीष्म,दोपहर पीछे वर्षा सांध्य के समय शिशिर, आधी रात पर शरद और प्रातः काल में हेमन्त ऋतु भोगता है।

हेमन्त -ऋतु में शान्ति कर्म करना उचित है।

बसंत– ऋतु में वशीकरण करना उचित है।

शिशिर -ऋतु में स्तम्भ करना उचित है।

ग्रीष्म- ऋतु में विद्वेषण करना उचित है।

वर्षा– ऋतु में उच्चाटन करना उचित है।

शरद- ऋतु में मारण कर्म करना उचित है।

b>षटकर्म में ऋतु विचार:- एक दिन-रात्रि में साठ घटि यानी 24 घंटे होते हैं जिनमें दस-दस घटि यानि चार-चार घंटे में प्रत्येक ऋतु को विभक्त किया जाता है।

1-बसंत ऋतु – सूर्योदय से चार घंटे के बाद को माना जाता है। बसंत में वशीकरण प्रयोग करना चाहिए।

2-ग्रीष्म ऋतु – बसंत ऋतु से चार घंटे के बाद को ग्रीष्म ऋतु माना जाता है। ग्रीष्म में विद्वेषण प्रयोग करना चाहिए।

3-वर्षा ऋतु – ग्रीष्म ऋतु से चार घंटे के बाद को वर्षा ऋतु माना जाता है। वर्षा में उच्चाटन प्रयोग करना चाहिए।

4-शरद ऋतु– वर्षा ऋतु से चार घंटे के बाद को शरद ऋतु माना जाता है। शरद ऋतु में मारण प्रयोग करना चाहिए। प्रयोग करना चाहिए।

5-हेमन्त ऋतु– शरद ऋतु ऋतु से चार घंटे के बाद को हेमन्त ऋतु माना जाता है।

हेमन्त ऋतु में शांति कर्म प्रयोग करना चाहिए।

6-शिशिर ऋतु– हेमन्त ऋतु से चार घंटे के बाद को शिशिर ऋतु माना जाता है। शिशिर में स्तंभन प्रयोग करना चाहिए।

c>कुछ आचार्य प्रातः काल को बसंत, मध्याह्न को ग्रीष्म, दोपहर बाद और संध्या के पहले के समय को वर्षा, संध्या समय को शिशिर, आधी रात को शरद और रात्रि के अंतिम प्रहर को हेमन्त कहते है।

इस प्रकार हेमन्त ऋतु में शांति कर्म, बसंत में वशीकरण, शिशिर में स्तंभन, ग्रीष्म में विद्वेषण, वर्षा में उच्चाटन और शरद ऋतु में मारण प्रयोग करना चाहिए।

d>समय विचार:-

दिवस के पहले प्रहर में वशीकरण, विद्वेषण और उच्चाटन,

दोपहर में शांति कर्म, तीसरे प्रहर में स्तंभन और संध्या काल में मारण का प्रयोग करना चाहिए।

5-हवन सामग्री का प्रकार:-

शान्ति कर्म में तिल, शुद्ध धृत और समिधा आम,

पुष्टि कर्म में शुद्ध घी, बेलपत्र, धूप, समिधा ढाक

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए धूप, खीर मेवा इत्यादि का हवन करें। समिधा चन्दन व पीपल का

आकर्षण व मारण में तेल और सरसों का हवन करें,

वशीकरण में सरसों और राई का हवन सामान्य है।

शुभ कर्म में जौ, तिल, चावल व

अन्य कार्यों में देवदारू और शुद्ध घी सर्व मेवा का हवन श्रेष्ठ है। सफेद चन्दन, आम, बड़, छोंकरा पीपल की लकड़ी होनी चाहिए।

6-साधना का समय:-

दिन के तृतीय पहर में शान्ति कर्म करें और

दोपहर काल के प्रहर वशीकरण और

दोपहर में उच्चाटन करें और

सायंकाल में मारण करें।

1 प्रातःकाल- हेमन्त ऋतु

2 मध्यान्म से पहले- ग्रीष्म ऋतु

3 दोपहर से पहले- बसंत ऋतु

4 दोपहर के बाद- वर्षा ऋतु

5 संध्या के समय- शिशिर ऋतु

6 आधि रात के समय- शरद ऋतु

7>-सिद्ध योग:-तिथि विचार:-

शांति कर्म- किसी भी तिथि को शुभ नक्षत्र में करना चाहिए, इसमें तिथि का विचार गौण है।

आकर्षण– प्रयोग नवमी, दशमी, एकादशी या अमावस्या को,

विद्वेषण– शनिवार और रविवार को पड़ने वाली पूर्णिमा को

उच्चाटन– षष्ठी, अष्टमी या अमावस्या (प्रदोष काल इस कार्य के लिये विशेष शुभ होता है) को, स्तंभन- पंचमी, दशमी अथवा पूर्णिमा को तथा

मारण- प्रयोग अष्टमी, चतुर्दशी या अमावस्या को करने से फल शीघ्र प्राप्त होता है।

तिथियों की पूर्ण जानकारी :-

तिथियाँ शुक्ल में भी पक्ष १५ होती है औ कृष्ण पक्ष में भी १५ होती है |

तिथियों के स्वामी :-

तिथियों के स्वामी

8>तिथि स्वामी तिथि स्वामी तिथि स्वामी=

1-प्रतिपत अग्नि 6 –षष्ठी कार्तिकेय 11-एकादशी विश्वदेव

2-द्वितीय ब्राह्ग 7-सप्तमी सूर्यदेव 12-द्वादशी विष्णु

3-तृतीया पार्वती शिव 8-अष्टमी शिव 13-त्रयोदशी कामदेव

4-चतुर्थ गणेशजी 9 –नवमी दुर्गाजी 14- चतुर्दशी शिव

5-पंचमी सर्पदेव(नाग ) 10-दशमी यमराज 15-पूर्णिमा चन्द्रमा

30-अमावस्या पित्रदेव

नोट — जिस देवता की जो विधि कही गई है उस तिथि में उस देवता की पूजा , प्रतिष्ठा , शांति विशेष हितकर होती है |

तिथियों के खंड (पक्ष) अनुसार:- 1 शुभ अशुभ जानकारी (शुक्ल पक्ष)

प्रथम खंड अशुभ तिथियाँ द्वितीय खंड मध्यम तिथियाँ तृतीय खंड

9>शुभ तिथियाँ नाम=

1-प्रतिपत 6-षष्ठी 11-एकादशी नंदा

2-द्वितीया 7-सप्तमी 12-द्वादशी भद्रा

3-तृतीया 8-अष्टमी 13-त्रयोदशी जया

4-चतुर्थी 9-नवमी 14-चतुर्दशी रिक्ता

5-पंचमी 10-दशमी 15-पूर्णिमा पूर्ण

तिथियों के खंड (पक्ष) अनुसार:- 2 शुभ अशुभ जानकारी (कृष्ण पक्ष)

प्रथम खंड शुभ तिथियाँ द्वितीय खंड मध्यम तिथियाँ तृतीय खंड

10>अशुभ तिथियाँ नाम=

1-प्रतिपत 6-षष्ठी 11-एकादशी नंदा

2-द्वितीया 7-सप्तमी 12-द्वादशी भद्रा

3-तृतीया 8-अष्टमी 13-त्रयोदशी जया

4-चतुर्थी 9-नवमी 14-चतुर्दशी रिक्ता

5-पंचमी 10-दशमी 15-पूर्णिमा

पूर्ण

नन्दा तिथियाँ – दोनों पक्षों की प्रतिपदा, षष्ठी व एकादशी (१,६,११) नन्दा तिथियाँ कहलाती हैं | प्रथम गंडात काल अर्थात अंतिम प्रथम घटी या २४ मिनट को छोड़कर सभी मंगल कार्यों के लिए शुभ माना जाता है |

भद्रा तिथियाँ – दोनों पक्षों की द्वितीया, सप्तमी व द्वादशी (२,७,१२) भद्रा तिथि होती है | व्रत, जाप, तप, दान-पुण्य जैसे धार्मिक कार्यों के लिए शुभ हैं |

जया तिथि – दोनों पक्षों की तृतीया, अष्टमी व त्रयोदशी (३,८,१३) जया तिथि मानी गयी है | गायन, वादन आदि जैसे कलात्मक कार्य किये जा सकते हैं |

रिक्ता तिथि – दोनों पक्षों की चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी (४,९,१४) रिक्त तिथियाँ होती है | तीर्थ यात्रायें, मेले आदि कार्यों के लिए ठीक होती हैं |

11>सिद्ध तिथि योग चक्रम=

संज्ञक तिथि तिथि वार योग का निर्माण

नन्दा तिथि 1 ,6 ,11 शुक्रवार शुभ होता है ऐसा होने पर सिद्धयोग का निर्माण होता है।

भद्रा तिथि 2,7,12 बुधवार सिद्धयोग का निर्माण करती है।

जया तिथि 3,8,13 मंगलवार यह बहुत ही मंगलमय होता है , सिद्धयोग का निर्माण होता है।

रिक्ता तिथि 4,9,14 शनिवार यह भी सिद्धयोगका निर्माण करती है।

पूर्णा तिथि 5,10,15,30 बृहस्पतिवार सभी प्रकार के मंगलकारी कार्य के लिए शुभफलदायी कहा गया है।

पूर्णा तिथियाँ – दोनों पक्षों की पंचमी, दशमी और पूर्णिमा और अमावस (५,१०,१५,३०) पूर्णा तिथि कहलाती हैं | तिथि गंडात काल अर्थात अंतिम १ घटी या २४ मिनट पूर्व सभी प्रकार के लिए मंगल कार्यों के लिए ये तिथियाँ शुभ मानी जाती हैं |

12>इनके अलावा भी कुछ तिथियाँ होती हैं |=

१. युगादी तिथियाँ – सतयुग की आरंभ तिथि – कार्तिक शुक्ल नवमी, त्रेता युग आरम्भ तिथि – बैसाख शुक्ल तृतीया, द्वापर युग आरम्भ तिथि – माघ कृष्ण अमावस्या, कलियुग की आरंभ तिथि – भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी | इन सभी तिथियों पर किया गया दान-पुण्य-जाप अक्षत और अखंड होता है | इन तिथियों पर स्कन्द पुराण में बहुत विस्तृत वर्णन है |

२. सिद्धा तिथियाँ – इन सभी तिथियों को सिद्धि देने वाली माना गया है | इसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि इनमे किया गया कार्य सिद्धि प्रदायक होता है |


13>सिद्धा तिथियाँ=

वार तिथि तिथि तिथि

मंगलवार ३ ८ १३

बुधवार २ ७ १२

गुरूवार ५ १० १५

शुक्रवार १ ६ ११

शनिवार ४ ९ १४

पर्व तिथियाँ – कृष्ण पक्ष की तीन तिथियाँ अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि और संक्रांति तिथि पर्व कहलाती है | इन्हें शुभ मुहूर्त के लिए छोड़ा दिया जाता है |

प्रदोष तिथियाँ – द्वादशी तिथि अर्ध रात्रि पूर्व, षष्ठी तिथि रात्रि से ४ घंटा ३० मिनट पूर्व एवं तृतीया तिथि रात्रि से ३ घंटा पूर्व समाप्त होने की स्थिति में प्रदोष तिथियाँ कहलाती हैं | इनमें सभी शुभ कार्य वर्जित हैं |

14>दग्धा, विष एवं हुताषन तिथियाँ=

a-वार/तिथि रविवार सोमवार मंगलवार बुधवार गुरूवार शुक्रवार शनिवार

b-दग्धा १२ ११ ५ ३ ६ ८ ९

c-विष ४ ६ ७ २ ८ ९ ७

d-हुताशन १२ ६ ७ ८ ९ १० ११

उपरोक्त सभी वारों के नीचे लिखी तिथियाँ दग्धा, विष, हुताशन तिथियों में आती हैं | यह सभी तिथियाँ अशुभ और हानिकारक होती हैं |

मासशून्य तिथियाँ – ऐसा कहा जाता है कि इन तिथियों पर कार्य करने से कार्य में उस कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती |

15>मासशून्य तिथियाँ=

मास शुक्ल पक्ष कृष्ण पक्ष मास शुक्ल पक्ष कृष्ण पक्ष

चैत्र ८,९ ८,९ अश्विन १०,११ १०,११

बैसाख १२ १२ कार्तिक १४ ५

ज्येष्ठ १३ १४ मार्गशीर्ष ७,८ ७,८

आषाढ़ ७ ६ पौष ४,५ ४,५

श्रावण २,३ २,३ माघ ६ ६

भाद्रपद १,२ १,२ फाल्गुन ३ ३

वृद्धि तिथि – सूर्योदय के पूर्व प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय के बाद समाप्त होने वाली तिथि ‘वृद्धि तिथि’ कहलाती है | इसे‘तिथि वृद्धि’ भी कहते हैं | ये सभी मुहूर्त के लिए अशुभ होती है |

क्षय तिथि – सूर्योदय के पश्चात प्रारंभ होकर अगले दिन सूर्योदय से पूर्व समाप्त होने वाली तिथि ‘क्षय तिथि’ कहलाती है | इसे‘तिथि क्षय’ भी कहते हैं | यह तिथि सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दी जाती है |

गंड तिथि – सभी पूर्ण तिथियों (५,१०,१५,३०) की अंतिम २४ मिनट या एक घटी तथा नन्दा तिथियों (१,६,११) की प्रथम २४ मिनट या १ घटी गंड तिथि की श्रेणी में आती हैं | इन तिथियों की उक्त घटी को सभी मुहूर्तों के लिए छोड़ दिया जाता है |

16>तिथि श्रेणियां – केलेंडर की तिथियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ग्रहों से प्रभावित रहती हैं | अतः इन ग्रहों की संख्या के अनुसार इन तिथियों को ७ श्रेणियों में बांटा जा सकता है |

ग्रहों की संख्या के अनुसार इन तिथियों को ७ श्रेणियों में बांटा जा सकता है |

१. सूर्य प्रभावित तिथियाँ – १, १०, १९, २८ और ४,१३, २२, ३१

२. चन्द्र प्रभावित तिथियाँ – २,११,२०, २९, और ७,१६,२५

३. मंगल प्रभावित तिथियाँ – ९, १८, २७

४. बुध प्रभावित तिथियाँ – ५,१४,२३

५. गुरु प्रभावित तिथियाँ – ३,१२,२१,३०

६. शुक्र प्रभावित तिथियाँ – ६,१५,२४

७. शनि प्रभावित तिथियाँ – ८,१७,२६


17>-जप माला माला गूँथने का तरीका :-=

वशीकरण में मूँगा, बेज, हीरा, प्रबल, मणिरत्न, आकर्षण में हाथी दाँत की माला बना लें, मारण में मनुष्य की गधे के दाँत की माला होनी चाहिए। शंख या मणि की माला धर्म कार्य में काम लें, कमल गट्टा की माला से सर्व कामना व अर्थ सिद्धि हो उससे जाप करें, रुद्राक्ष की माला से

किए हुए मंत्र का जाप संपूर्ण फल देने वाला है। मोती मूँगा की माला से सरस्वती के अर्थ जाप करें। कुछ कर्मों में सर्प की हड्डियों का भी प्रयोग

होता है।27 दाने की माला समस्त सिद्धियों को प्रदान करती है। अभिचार व मारण में 15 दाने की माला होनी चाहिए और तांत्रिक पण्डितों ने

कहा है कि 108 दाने की माला तो सब कार्यों में शुभ है। माला में मनकों की संख्या: शांति और पुष्टिकर्म के लिए सत्ताईस दानों की, वशीकरण

के लिए पंद्रह, मोहन के लिए दस, उच्चाटन के लिए उन्तीस और विद्वेषण के लिए इकतीस दानों की माला का उपयोग करना चाहिए

18>माला जपने में उंगलियों का नियमः-=

a-शांतिकर्म, वशीकरण तथा स्तंभन प्रयोग में तर्जनी व अंगूठे से,

b-आकर्षण में अनामिका और अंगूठे से,

c-विद्वेषण और उच्चाटन में तर्जनी और अंगूठे से

d-और मारण प्रयोग में कनिष्ठिका और अंगूठे से माला फेरना उत्तम होता है।

19>- माला जप के नियम तथा भेद:-  तीन प्रकार के होते हैं –=

a-वाचिक- जो सस्वर किया जाए, मारण आदि प्रयोगों में वाचिक जप शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला होता है।

b-उपांशु- जिसमें होंठ और जीभ हिलें किंतु स्वर न सुनाई दे और शांति तथा पुष्टिकर्म में उपांशु जप शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला होता है।

c-मानसिक- जिसमें होंठ और जीभ नहीं हिलें। मानसिक जप में अक्षरों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। मोक्ष साधन में मानसिक जप शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला होता है।

 20>माला गूँथने का तरीका=

वशीकरण में मूँगा, बेज, हीरा, प्रबल, मणिरत्न, शांति, पुष्टि कर्म में पद्म सूत के डोरे से माला को गूँथें

आकर्षण में हाथी दाँत की माला आकर्षण उच्चाटन में घोड़े की पूंछ के बालों से गूँथें,

मारण में मनुष्य की गधे के दाँत की माला मारण प्रयोग में मृतक मनुष्यों की नसों से गुंथी हुई माला

धर्म कार्य में शंख या मणि की माला अन्य कर्मों में कपास के सूत की गूँथी माला शुद्ध होती है

सर्व कामना व अर्थ सिद्धि में कमल गट्टा की माला

सरस्वती के अर्थ में मोती मूँगा की माला

रुद्राक्ष की माला से किए हुए मंत्र का जाप संपूर्ण फल देने वाला है।

21>-योगिनी विचार:–=

परिवा नौमी पूरब वास, तीज एकादशी अग्नि की आस।

पंच त्रयोदशी दक्षिण बसै, चैथ द्वादशी नैर्ऋत्य लसैं।

षष्ठी चतुर्दशी पश्चिम रहे, सप्तम पंद्रसि वायव्य गहै।

द्वितीय दशमी उत्तर धाय, ‘‘निर्भय ‘‘आठ ईशान निराय।।

22>योगिनी चक्र:-=
ईशान पूरब अग्नि 8 1 व 9 3 व 11 ,उत्तर सूर्य दक्षिण 2 व 10 5 व 13

वायव्य पश्चिम नैर्ऋत्य 7 व 15 6 व ,पूर्व में 14 4 व 12 प्रतिपदा को,

द्वितीया को उत्तर में, तृतीया को अग्निकोण में, चतुर्थी को नैर्ऋत्य में, पंचमी को दक्षिण में, षष्ठी को पश्चिम में, सप्तमी को वायव्य में और अष्टमी को ईशान में योगिनी का वास रहता है।

प्रयोग से पूर्व साधक को किसी ज्योतिषी से ग्रह, नक्षत्र, दिशा शूल तथा योगिनी का विचार करवा लेना चाहिए क्योंकि योगिनी सम्मुख या
दाहिने हाथ की ओर होने से अत्यन्त अनिष्टकारी होती है। षटकर्म में हवन सामग्री: षटकर्म प्रयोग के अनुसार हवन सामग्री अलग-अलग
होती है। साधक को चाहिए कि जैसा प्रयोग हो उसी के अनरूप

योगिनी विचार

प्रतिपदा और नवमी तिथि को योगिनी पूर्व दिशा में रहती है,

23>दिशा तिथियाँ=

तृतीया और एकादशी को अग्नि कोण में

पूर्व दिशा में 1,9

त्रयोदशी को और पंचमी को दक्षिण दिशा में

अग्नि कोण 3,11

चतुर्दशी और षष्ठी को पश्चिम दिशा में

दक्षिण दिशा 13,5

पूर्णिमा और सप्तमी को वायु कोण में

पश्चिम दिशा 14,6

द्वादसी और चतुर्थी को नैऋत्य कोण में,

वायु कोण 15,7

दसमी और द्वितीया को उत्तर दिशा में

नैऋत्य कोण 12,14

अष्टमी और अमावस्या को ईशानकोण में योगिनी का वास रहता है,

उत्तर दिशा 10,2

वाम भाग में योगिनी सुखदायक,पीठ पीछे वांछित सिद्धि दायक,

ईशानकोण 8,30

दाहिनी ओर धन नाशक और सम्मुख मौत देने वाली होती है.

वाम भाग में योगिनी सुखदायक,पीठ पीछे वांछित सिद्धि दायक

दाहिनी ओर धन नाशक ,सम्मुख मौत देने वाली

उदाहरण प्रथमा व नवमी को पूर्व दिशा मे योगनी का वास एसे हि क्रमशः ज्ञात कर ले।

24>-आसन का प्रकार:-=

वशीकरण में मेंढ़े के चर्म का आसन होना चाहिए। आकर्षण में मृग, उच्चाटन में ऊँट, मारण में ऊनी कम्बल और अन्य कर्म में कुशा का

आसन श्रेष्ठ है। पूर्व को मुख, पश्चिम को पीठ, ईशान को दक्षिण हस्त आग्नेय को बायाँ हाथ, वायव्य को दाहिना पग,नैऋत्य को वाम पगकरके आसन पर बैठना चाहिए।

आसन, योगासन,वस्त्र विचार, विचारतांत्रिक षट् कर्म

कर्म आसन विचार योगासन वस्त्र विचार

1.शांति कर्म गजचर्म सुखासन सफेद

2.वशीकरण भेड़ की खाल भद्रासन लाल

3.स्तंभन शेर की खाल पद्मासन पीले

4.विद्वेषण घोड़े की खाल पर कुक्कुटासन रक्त, सुर्ख लाल

5.उच्चाटन ऊंट की खाल पर अर्ध-स्वस्तिकासन धुम्र,काला+कत्थई

6.मारण भैंसे की खाल, भेड़

के ऊन से बने आसन विकटासन काला

अन्य कर्म में कुशा का आसन श्रेष्ठ है।

पूर्व को मुख, पश्चिम को पीठ,ईशान को दक्षिण हस्त

आग्नेय को बायाँ हाथ, वायव्य को दाहिना पग,

नैऋत्य को वाम पग करके आसन पर बैठना चाहिए।

25>कलश विधान :–=

शांतिकर्म में नवरत्न युक्त स्वर्ण, चांदी अथवा ताम्र का कलश स्थापित करें।

उच्चाटन तथा वशीकरण में मिट्टी के,

मोहन में रूपे के और मारण में लोहे के कलश का प्रयोग करना उत्तम और शुभ होता है।

ताम्र कलश सभी प्रयोगों में स्थापित किया जा सकता है।

26>नक्षत्रो के देवता :-
२७ नक्षत्र होते है जो २७ नक्षत्रो के स्वामी कहे गए है उन्ही देवताओं की अर्जन करना भाग्य वर्धक रहता है |जो दोष है

उनकी शांति नक्षत्र के स्वामी की करनी चाहिए | भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए नक्षत्रो की पूजा अवश्य करनी चाहिए | लोग कहते है की

परिश्रम के अनुसार लाभ नहीं मिल रहा है , रात दिन मेहनत करते है , परिवार में शांति नहीं रहती है इन्ही का पूजन अवश्य करना चाहिए |

नक्षत्रो के देवता

क.स. नक्षत्र नक्षत्र स्वामी का स्वामी क.स. नक्षत्र नक्षत्र स्वामी का स्वामी

1 अश्वनी नासत्(दोनों अश्वनी कुमार) 14 चित्र विश्वकर्मा

2 भरणी अन्तक(यमराज ) 15 स्वाती समीर

3 कृतिका अग्नि 16 विशाखा इन्द्र और अग्नि

4 रोहिणी धाता (ब्रह्मा), 17 अनुराधा मित्र

5 म्रगशिरा शशम्रत ( चन्द्रमा ) 18 ज्येष्ठा इन्द्र

6 आर्दा रूद्र ( शिवजी ) 19 मूल निर्रुती (राक्षस)

7 पुनर्वसु आदिती (देवमाता ) 20 पुर्वाशाडा क्षीर (जल )

8 पुष्य वृहस्पति 21 उत्तरा शाडा विश्वदेव (अभिजित-विधि विधाता)

9 श्लेषा सूर्य 22 श्रवण गोविन्द ( विष्णु )

10 मघा पितर 23 धनिष्ठा वसु (आठ प्रकार के वसु )

11 पूर्व फाल्गुनी भग्र 24 शतभिषा तोयम

12 उत्तरा फाल्गुनी अर्यमा 25 पूर्वभाद्र अजचरण(अजपात नामक सूर्य )

13 हस्त रवि 26 उत्तरा भाद्रपद अहिर्बुध्न्य (नाम का सूर्य )

27 रेवती पूषा (पूषण नाम का सूर्य )

27>राशियों के नाम एवम उनके स्वामी :- की जानकारी=

क.स. राशि राशि का स्वामी क.स. राशि राशि का स्वामी

1 मेष मंगल 7 तुला शुक्र

2 वृष शुक्र 8 वृश्चिक मंगल

3 मिथुन बुध 9 धनु गुरु

4 कर्क चन्द्रमा 10 मकर शनि

5 सिंह सूर्य 11 कुम्भ शनि

6 कन्या बुध 12 मीन गुरु

28>हवन सामग्री:-=

शांति कर्म में- दूध, घी, तिल और आम की लकड़ी से,

पुष्टिकर्म में- दही, घी, बिल्वपत्र, चमेली के पुष्प, कमल गट्टा, चंदन, जौ, काले तिल तथा अन्न के मिश्रण से,

आकर्षण प्रयोग में- चिरौंजी, तिल और बिल्व पत्र से,

वशीकरण में -राई और नमक से और

उच्चाटन में- काग पंख घी में सानकर धतूरे के बीज मिलाकर हवन करना चाहिए।

विशेष:- शुभ कार्यों में घृत, मेवा, खीर और धूप से तथा अशुभ कार्यों में घृत, तिल, मेवा, चावल, देवदारु आदि से हवन करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

राशी विचार एवं योगादी देखना :- षठ्कर्मोँ मेँ इसके अलावा राशी विचार एवं योगादी देखना आवश्यक है। इनको ज्ञात करे बिना षठ्कर्म मेँ सिद्धी होना असंभव माना गया है।छः कमो की देवी

29>यंत्र लिखते हुए निम्न बातो को ध्यान मेँ रखना आवश्यक है।=

1-आप जिस स्थान मे यंत्र लिखे वह पवित्र एवं एकांत हो।

साधक को स्नानादि कर के शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए

अपने इष्ट के समक्ष यंत्र लिखना लाभकारी होता है।

2-रविपुष्य रविहस्त रविमूल गुरुपुष्य दिपावली होली नवरात्र विजयदशमी तीर्थकरो का जन्मदिवस

सूर्यग्रहण तब या अच्छा महूर्त्त निकलवाकर हि यंत्र लिखे।

3-कलम – हेतु आनार जूही तुलसी एवं स्वर्ण व चांदी की कलम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है

4-स्याही- मे लाल काली केसर कुंकुं पंचगंध व अष्टगंध को सर्वश्रेष्ठ माना गया है

पंचगंध स्याही- केसर, चंदन, कस्तुरी, कपूर, गोरोचन ।

यक्षकर्दम स्याही– केसर, चंदन, कस्तुरी, कपूर, अगर।

अष्टगंध स्याही– चंदन रक्तचंदन,केसर कस्तुरी, अगर तगर, गोरोचन, अंकोल, भीमसेनीकपूर, एवं

चंदन रक्तचंदन केसर कस्तुरी अगर तगर गोरोचन सिंदुर से भी बनती है।

5-धूप- हेतु लोबान गुग्गल नवरंगी या दशांग धूप का प्रयोग सर्वश्रेष्ठ मानी गई है

नवरंगी धूप- अगर, लोबान, ब्राम्ही, नखला, राल, छडछडीला, चंदन गिरी, गुग्गल आदि गुग्गल को

अन्य सामग्री से दुगना मिलाया जाता है।

दशांग धूप- शिलारस, गुग्खल, चंदन, जटामांसी, लोबान, रार, उसीर ,नखला, भीमसेनीकपूर, कस्तुरी

से भी बनती है।

6-पत्र – पत्रो मेँ स्वर्ण रजत ताम्रपत्र काष्ठ भोजपत्र या उत्तम कोटि का कागज लेने चाहिए

7-ताबीज या मादलिया हेतु स्वर्ण रजत ताम्र ही उत्तम है ताबीज बन जाने पर ताबीज का मुख

लाख से बंद करना चाहिए।

7-यंत्र बन जाने के बाद

ॐ पाघं अर्घ्यमाचमनीयं वस्त्रं गंधाक्षतान् पुष्पं धूपं दीपं नैवैघ तांबूलं पुंगीफलं दक्षिणां च

समर्पयामी। मंत्र द्वार यंत्र की चंदन पुष्प धूप दीप फल व नैवेघ अक्षत पान दक्षिणा से पूजा करनी

चाहिए।

30>मार्जन मंत्र :-=
 इस मंत्र को पढ़कर बायीं हथेली में जल लेकर बीज अक्षर से प्रत्येक अंग का मंत्रानुसार स्पर्श कर लेना चाहिए।

ऊँ क्षां हृदयाय नमः, ऊँ क्षीं शिरसे स्वाहा। ऊँ ह्रीं शिखाय वौषट, ऊँ हूं कवचाय हूम। ऊँ क्रों नेत्राभ्यां वो षटः, ऊँ क्रों अस्त्राय पफट्। ऊँ क्षां क्षीं ह्रीं ह्रीं कों क्रें पफट् स्वाहा।

विनियोग मंत्र-तंत्र-यंत्र उत्कीलन विनियोगः-

अस्य श्री सर्व यंत्रा-मंत्रा-तंत्राणां उत्कीलन मंत्र स्तोत्रस्य मूल प्रकृति ऋषिः जगती छन्द निरंजन देवता उत्कीलन क्लीं बीजं ह्रीं शक्तिः ह्रौं

कीलकं सप्तकोटि यंत्र-मंत्र-तंत्राणां सिद्धं जये विनियोगः। न्यास: ऊँ मूल प्रकृति ऋषेय नमः शिरसी जगति छन्देस नमः, मुखे,ऊँ निरंजन

देवतायै नमः हृदि, क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, ह्रीं शक्तिये नमः, पादयो ह्रौं कीलकाय नमः, सर्वांगे ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः, ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः, हूं

मध्यमाभ्यां नमः, ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः, ह्रां करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः। ध्यान: ब्रह्म स्वरूपं मलच निरंजन तं ज्योतिः प्रकाशम। न तं

सततं महांतं कारूण्य रूप मपि बोध करं प्रसन्नं दिव्यं स्मरणां सततं मनु जीव नायं एवं ध्वात्वा स्मरे नित्यं तस्य सिद्धिस्तु सर्वदा वांछितं

फलमाप्नोति मंत्र संजीवनं ध्रुवं। शिवार्चन: पार्वती फणि बालेन्दु भस्म मंदाकिनी तथा पवर्ग रचितां मूर्तिः अपवर्ग फलप्रदा।

31>आवश्यक निर्देश:-=
 साधक को मंत्र, तन्त्रादि का प्रयोग करने से पूर्व किन्हीं ज्ञानी गुरु के चरणों में बैठकर उनसे समस्त क्रियाओं के बारे में पूर्ण

ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। उसके पश्चात भक्ति एवं प्रबल आत्मविश्वास के साथ गुरु आज्ञा प्राप्त कर साधना करनी चाहिए। इसके

विपरीत यदि साधक के मन में अविश्वास होगा तो उसकी साधना का फल हानिप्रद भी हो सकता है क्योंकि बिना विश्वास के दुनिया का कार्य नहीं चल सकता।

अतः स्थिर चित्त होकर ही कर्म करना चाहिए। जिस दिन कोई कर्म करना हो उस दिन प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर एकांत स्थान में जो मंत्र सिद्ध करना हो उसे भोज पत्र पर केसर से लिख कर मुख में रख लेना चाहिए तथा जब तक मंत्र क्रिया चले उस समय तक चावल, मूंग की दाल या ऋतु फल का आहार कर रात्रि में पृथ्वी पर शयन करना चाहिए। षटकर्म के अनुसार किसी प्रयोग में यदि कोई वस्तु रात्रि में लानी हो तो नग्न हो स्वयं वह वस्तु लाएं तथा आते-जाते समय पीछे की ओर न देखें। नग्न होकर जाने से मार्ग में भूत-प्रेतादिकों का भय नहीं रहता और पीछे देखने से आपके पीछे जो सिद्धि प्रदानकर्ता आते हैं वे वापस चले जाते हं। उपर्युक्त सभी कार्य षटकर्म मंत्रों के प्रयोग के पूर्व की जानकारी है।

32>मंत्र साधना:–=

मंत्र साधना:– मंत्र एक सिद्धांत को कहते हैं। किसी भी आविष्कार को सफल बनाने के लिए एक सही मार्ग और सही नियमों की आवश्यकता होती है। मंत्र वही सिद्धांत है जो एक प्रयोग को सफल बनाने में तांत्रिक को मदद करता है। मंत्र द्वारा ही यह पता चलता है की कौन से तंत्र को किस यन्त्र में समिलित कर के लक्ष्य तक पंहुचा जा सकता है। मंत्र के सिद्ध होने पर ही पूरा प्रयोग सफल होता है। जैसे क्रिंग ह्रंग स्वाहा एक सिद्ध मंत्र है। मंत्र मन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करना अथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा।
इस प्रकार मंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके। अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है। मंत्र- मंत्र का अर्थ है मन को एक तंत्र में लाना। मन जब मंत्र के अधीन हो जाता है तब वह सिद्ध होने लगता है।

‘मंत्र साधना’

भौतिक बाधाओं का आध्यात्मिक उपचार है।

साधना भी कई प्रकार की होती है। मं‍त्र से किसी देवी या देवता को साधा जाता है और मंत्र से किसी भूत या पिशाच को भी साधा जाता है।

मुख्यत: 3 प्रकार के मंत्र होते हैं- 1. वैदिक मंत्र, 2. तांत्रिक मंत्र और 3. शाबर मंत्र।

मंत्र जप के भेद- 1. वाचिक जप, 2. मानस जप और 3. उपाशु जप।

वाचिक जप में ऊंचे स्वर में स्पष्ट शब्दों में मंत्र का उच्चारण किया जाता है।

मानस जप का अर्थ मन ही मन जप करना।

उपांशु जप का अर्थ जिसमें जप करने वाले की जीभ या ओष्ठ हिलते हुए दिखाई देते हैं लेकिन आवाज नहीं सुनाई देती। बिलकुल धीमी गति में जप करना ही उपांशु जप है।

33>मंत्र नियम :=
 मंत्र-साधना में विशेष ध्यान देने वाली बात है- मंत्र का सही उच्चारण। दूसरी बात जिस मंत्र का जप अथवा अनुष्ठान करना है, उसका अर्घ्य पहले से लेना चाहिए। मंत्र सिद्धि के लिए आवश्यक है कि मंत्र को गुप्त रखा जाए। प्रतिदिन के जप से ही सिद्धि होती है।

किसी विशिष्ट सिद्धि के लिए सूर्य अथवा चंद्रग्रहण के समय किसी भी नदी में खड़े होकर जप करना चाहिए। इसमें किया गया जप शीघ्र लाभदायक होता है। जप का दशांश हवन करना चाहिए और ब्राह्मणों या गरीबों को भोजन कराना चाहिए। यंत्र साधना सबसे सरल है। बस यंत्र लाकर और उसे सिद्ध करके घर में रखें लोग तो अपने आप कार्य सफल होते जाएंगे। यंत्र साधना को कवच साधना भी कह तेहैं।

तंत्र मंत्र यंत्र एक स्वतंत्र विज्ञान है तंत्र शास्त्र भारत की एक प्राचीन विद्या है, तंत्र ग्रंथ भगवान शिव के मुख से आविर्भूत हुए हैं। उनको पवित्र और प्रामाणिक माना गया है। भारतीय साहित्य में ‘तंत्र’ की एक विशिष्ट स्थिति है, पर कुछ साधक इस शक्ति का दुरुपयोग करने लग गए, जिसके कारण यह विद्या बदनाम हो गई। प्राचीन इतिहास से संबन्धित प्रामाणिक पुस्तकों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि उस समय बने यंत्रों के भी ऐसे अद्भूत कार्य संपन्न होते थे। जो आज आधुनिक यंत्रों से नहीं हो पाते।

तंत्र-मंत्र-यंत्र, माला , ताबीज, और इनकी कार्यप्रणाली, समाधान, अनुष्ठान भी अधिक जीवन जीने की पद्धति प्रदान करते हैं.

कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।

भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥

जो तंत्र से भय खाता हैं, वह मनुष्य ही नहीं हैं, वह साधक तो बन ही नहीं सकता! गुरु गोरखनाथ के समय में तंत्र अपने आप में एक सर्वोत्कृष्ट विद्या थी और समाज का प्रत्येक वर्ग उसे अपना रहा था! जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझाने में केवल तंत्र ही सहायक हो सकता हैं!

परन्तु गोरखनाथ के बाद में भयानन्द आदि जो लोग हुए उन्होंने तंत्र को एक विकृत रूप दे दिया! उन्होंने तंत्र का तात्पर्य भोग, विलास, मद्य, मांस, पंचमकार को ही मान लिया ।

जो व्यक्ति इन पांच मकारो में लिप्त रहता हैं वही तांत्रिक हैं,

“मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च, मकार पंचवर्गस्यात सह तंत्रः सह तान्त्रिकां”

भयानन्द ने ऐसा कहा! उसने कहा की उसे मांस, मछली और मदिरा तो खानी ही चाहिए, और वह नित्य स्त्री के साथ समागम करता हुआ
साधना करे! ये ऐसी गलत धरना समाज में फैली की जो ढोंगी थे, जो पाखंडी थे, उन्होंने इस श्लोक को महत्वपूर्ण मान लिया और शराब पीने लगे, धनोपार्जन करने लगे, और मूल तंत्र से अलग हट गए, धूर्तता और छल मात्र रह गया! और समाज ऐसे लोगों से भय खाने लगे! और दूर हटने लगे! लोग सोचने लगे कि ऐसा कैसा तंत्र हैं, इससे समाज का क्या हित हो सकता हैं? लोगों ने इन तांत्रिकों का नाम लेना बंद कर दिया,

उनका सम्मान करना बंद कर दिया, अपना दुःख तो भोगते रहे परन्तु अपनी समस्याओं को उन तांत्रिकों से कहने में कतराने लगे, क्योंकि उनके पास जाना ही कई प्रकार की समस्याओं को मोल लेना था! और ऐसा लगने लगा कि तंत्र समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं।

मंत्र साधनाओं एवं तंत्र के क्षेत्र में आज लोगों में रूचि बड़ी है, परन्तु फिर भी समाज में तंत्र के नाम से अभी भी भय व्याप्त है|यह पूर्ण शुद्ध सात्विक प्रक्रिया है, विद्या है परन्तु कालान्तर में तंत्र साधनाओं में विकृतियां आ गई| समाज के कुछ ओछे व्यक्तियों ने अपने निजी स्वार्थवश ऋषियों द्वारा बताए अर्थ को परिवर्तित कर अपनी अनुकूलता के अनुसार परिभाषा दे दी| वह विडम्बना रही है, कि भारतीय ज्ञान का यह उज्ज्वलतम पक्ष अर्थात तंत्र समाज में घृणित हो गया और आज भी समाज का अधिकांश भाग तंत्र के इस घृणित पक्ष से त्रस्त और

भयभीत है|

तभी तंत्र और मंत्र की विशाल शक्ति से समाज का प्रत्येक व्यक्ति लाभान्वित हो सकेगा| यह युग के अनुकूल मंत्र साधनाएं प्रस्तुत कर सकें,

चिन्तन दे सकें जिसे सामान्य व्यक्ति भी संपन्न कर लाभान्वित हो सके| और जब तक परिवर्तन नहीं होगा तब तक न अज्ञान मिटेगा और न ही ज्ञान का संचार ही हो सकेगा|

34>यन्त्र साधना:-=
 यंत्र को दो प्रकार से बनाया जाता है- 1.अंक द्वारा और 2.मंत्र द्वारा। यंत्र साधना में अधिकांशत: अंकों से संबंधित यंत्र अधिक प्रचलित हैं। श्रीयंत्र, घंटाकर्ण यंत्र आदि अनेक यंत्र ऐसे भी हैं जिनकी रचना में मंत्रों का भी प्रयोग होता है और ये बनाने में अति क्लिष्ट होते हैं।
इस साधना के अंतर्गत कागज अथवा भोजपत्र या धातु पत्र पर विशिष्ट स्याही से या किसी अन्यान्य साधनों के द्वारा आकृति,चित्र या संख्याएं बनाई जाती हैं। इस आकृति की पूजा की जाती है अथवा एक निश्चित संख्या तक उसे बार-बार बनाया जाता है। इन्हें बनाने के लिए विशिष्ट विधि, मुहूर्त और अतिरिक्त दक्षता की आवश्यकता होती है।

यंत्र या कवच भी सभी तरह की मनोकामना पूर्ति के लिए बनाए जाते हैं जैसे वशीकरण, सम्मोहन या आकर्षण, धन अर्जन,सफलता, शत्रु निवारण, भूत बाधा निवारण, होनी-अनहोनी से बचाव आदि के लिए यंत्र या कवच बनाए जाते हैं।
दिशा- प्रत्येक यंत्र की दिशाएं निर्धारित होती हैं।

धन प्राप्ति से संबंधित यंत्र या कवच पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके रखे जाते हैं।

सुख-शांति से संबंधित यंत्र या कवच पूर्व दिशा की ओर मुंह करके रखे जाते हैं।

वशीकरण, सम्मोहन या आकर्षण के यंत्र या कवच उत्तर दिशा की ओर मुंह करके रखे जाते हैं।

तो शत्रु बाधा निवारण या क्रूर कर्म से संबंधित यंत्र या कवच दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके रखे जाते हैं।

इन्हें बनाते या लिखते वक्त भी दिशाओं का ध्यान रखा जाता है।

35>साधना करने से पूर्व, उस मंत्र का संस्कार:-=

मंत्र जाप करने के भी कुछ नियम होते हैं। यदि आप उन नियमों का पालन करेंगे तो आपके घर में न केवल सुख-शांति आयेगी,बल्कि आपका स्‍वास्‍थ्‍य भी अच्‍छा रहेगा। ऐसे में आपको मंत्र संस्‍कार के बारे में भी जानना चाहिये। जातक को दीक्षा ग्रहण करने के बाद दीक्षिति को चाहिए कि वह अपने इष्ट देव के मंत्र की साधना विधि-विधान से करें। किसी भी मंत्र की साधना करने से पूर्व, उस मंत्र का संस्कार अवश्य करना चाहिए। शास्त्रों में मंत्र के 10 संस्कार वर्णित है। मंत्र संस्‍कार निम्न प्रकार से है- 1-जनन, 2- दीपन, 3- बोधन, 4- ताड़न, 5-
अभिषेक, 6- विमलीकरण, 7- जीवन, 8- तर्पण, 9- गोपन, 10- अप्यायन।

1-जनन संस्‍कार:- गोरचन, चन्दन, कुमकुम आदि से भोजपत्र पर एक त्रिकोण बनायें। उनके तीनों कोणों में छः-छः समान रेखायें खीचें।

इस प्रकार बनें हुए 99 कोष्ठकों में ईशान कोण से क्रमशः मातृका वर्ण लिखें। फिर देवता को आवाहन करें, मंत्र के एक-एक वर्ण का उद्धार करके अलग पत्र पर लिखें। इसे जनन संस्कार कहा जाता है।

2- दीपन संस्‍कार:- ’हंस’ मंत्र से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र का जाप करना चाहिए।

3- बोधन संस्‍कार:- ’हूं’ बीज मंत्र से सम्पुटित करके 5 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।

4- ताड़न संस्‍कार:-’फट’ से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।

5- अभिषेक संस्‍कार:- मंत्र को भोजपत्र पर लिखकर ’ऊँ हंसः ऊँ’ मंत्र से अभिमंत्रित करें, तत्पश्चात 1 हजार बार जप करते हुए जल से अश्वत्थ पत्रादि द्वारा मंत्र का अभिषेक संस्कार करें।

6- विमलीकरण संस्‍कार:- मंत्र को ’ऊँ त्रौं वषट’ इस मंत्र से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।

7- जीवन संस्‍कार:- मंत्र को ’स्वधा-वषट’ से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।

8- तर्पण संस्‍कार:- मूल मंत्र से दूध,जल और घी द्वारा सौ बार तर्पण करना चाहिए।

9- गोपन संस्‍कार:- मंत्र को ’ह्रीं’ बीज से सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए।

10- आप्यायन संस्‍कार:- मंत्र को ’ह्रीं’ सम्पुटित करके 1 हजार बार मंत्र जाप करना चाहिए। इस प्रकार दीक्षा ग्रहण कर चुके जातक को उपरोक्त विधि के अनुसार अपने इष्ट मंत्र का संस्कार करके, नित्य जाप करने से सभी प्रकार के दुःखों का अन्त होता है।

योग साधना सभी साधनाओं में श्रेष्ठ मानी गई है योग साधना। यह शुद्ध, सात्विक और प्रायोगिक है। इसके परिणाम भी तुरंत और स्थायी महत्व के होते हैं। योग कहता है कि चित्त वृत्तियों का निरोध होने से ही सिद्धि या समाधि प्राप्त की जा सकती है-‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’।

मन, मस्तिष्क और चित्त के प्रति जाग्रत रहकर योग साधना से भाव, इच्छा, कर्म और विचार का अतिक्रमण किया जाता है। इसके लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ये 5 योग को प्राथमिक रूप से किया जाता है। उक्त 5 में अभ्यस्त होने के बाद धारणा और ध्यान

स्वत: ही घटित होने लगते हैं। योग साधना द्वार अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति की जाती है। सिद्धियों के प्राप्त करने के बाद व्यक्ति अपनी सभी तरह की मनोकामना पूर्ण कर सकता है।

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